भगत सिंह को 'श्रद्धांजलि' से पहले यह जरूर पढ़ लेना | Bhagat Singh's miraculous face

Bhopal Samachar
कुछ आपराधिक घटनाओं के कारण लोगों के सामने भगत सिंह का केवल वही चेहरा लोकप्रिय हुआ जो सरकारी दस्तावेजों में दर्ज था। अंग्रेजों ने उन्हे हत्यारा और महात्मा गांधी ने अपराधी माना लेकिन क्या आप जानते हैं महज 16 साल का बालक भगत सिंह कलम का ऐसा कारीगर था कि बड़े विद्वान साहित्यकार भी पानी मांगते नजर आएं। जितनी अच्छी हिन्दी और उर्दू ,उतनी ही अंगरेज़ी और पंजाबी। विचार तो ऐसे कि यदि स्वतंत्र भारत की पहली सरकार में शामिल होते तो भारत की नीति और नियति दोनों कुछ और ही होतीं। 

भगत सिंह के एक लेख को हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने पचास रूपए का इनाम दिया गया था। लेख की भाषा और विचारों का प्रवाह अदभुत है। एक हिस्सा यहाँ प्रस्तुत है -"इस समय पंजाब में उर्दू का ज़ोर है। अदालतों की भाषा भी यही है। यह सब ठीक है परन्तु हमारे सामने इस समय मुख्य प्रश्न भारत को एक राष्ट्र बनाना है। एक राष्ट्र बनाने के लिए एक भाषा होना आवश्यक है ,परन्तु यह एकदम नहीं हो सकता। उसके लिए क़दम क़दम चलना पड़ता है। यदि हम अभी भारत की एक भाषा नहीं बना सकते तो कम से कम लिपि तो एक बना देना चाहिए। उर्दू लिपि सर्वांग-संपूर्ण नहीं है। फिर सबसे बड़ी बात तो यह है कि उसका आधार फारसी पर है। 

उर्दू कवियों की उड़ान चाहे वो हिन्दी (भारतीय) ही क्यों न हों -ईरान के साक़ी और अरब के खजूरों तक जा पहुँचती है। क़ाज़ी नज़र -उल-इस्लाम की कविता में तो धूरजटी, विश्वामित्र और दुर्वासा की चर्चा बार बार है, लेकिन हमारे उर्दू, हिंदी, पंजाबी कवि उस ओर ध्यान तक न दे सके। क्या यह दुःख की बात नहीं ? इसका मुख्य कारण भारतीयता और भारतीय साहित्य से उनकी अनभिज्ञता है। उनमें भारतीयता आ ही नहीं पाती,तो फिर उनके रचे गए साहित्य से हम कहाँ तक भारतीय बन सकते हैं?...तो उर्दू अपूर्ण है और जब हमारे सामने वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित सर्वांग-संपूर्ण हिंदी लिपि विधमान है, फिर उसे अपने अपनाने में हिचक क्यों ?..हिंदी के पक्षधर सज्जनों से हम कहेंगे कि हिंदी भाषा ही अंत में एक दिन भारत की भाषा बनेगी, परंतु पहले से ही उसका प्रचार करने से बहुत सुविधा होगी।

बालक भगत सिंह की इस भाषा पर आप क्या टिप्पणी करेंगे

सोलह-सत्रह बरस के भगत सिंह की इस भाषा पर आप क्या टिप्पणी करेंगे ? इतनी सरल और कमाल के संप्रेषण वाली भाषा भगत सिंह ने बानवे-तिरानवे साल पहले लिखी थी। आज भी भाषा के पंडित और पत्रकारिता के पुरोधा इतनी आसान हिंदी नहीं लिख पाते और माफ़ कीजिए हमारे अपने घरों के बच्चे क्या सोलह-सत्रह की उमर में आज इतने परिपक्व हो पाते हैं। नर्सरी-केजी-वन, केजी-टू के रास्ते पर चलकर इस उमर में वे दसवीं या ग्यारहवीं में पढ़ते हैं और उनके ज्ञान का स्तर क्या होता है- बताने की ज़रूरत नहीं। इस उमर तक भगत सिंह विवेकानंद, गुरुनानक, दयानंद सरस्वती, रवींद्रनाथ ठाकुर और स्वामी रामतीर्थ जैसे अनेक भारतीय विद्वानों का एक-एक शब्द घोंट कर पी चुके थे। यही नहीं विदेशी लेखकों-दार्शनिकों और व्यवस्था बदलने वाले महापुरुषों में गैरीबाल्डी और मैजिनी, कार्ल मार्क्स, क्रोपाटकिन, बाकुनिन और डेनब्रीन तक भगत सिंह की आँखों के साथ अपना सफ़र तय कर चुके थे।
पत्रकार राजेश बादल के लेख से निकाले संपादित अंश।
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