नई दिल्ली। भारत के ग्रामीण इलाकों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा की पहुंच असंतोषजनक है, परिणाम- इलाज के अभाव और इलाज के लिए बड़े शहर पहुँचने से मौत एक आम बात है | अच्छे सरकारी व निजी अस्पतालों तथा विशेषज्ञ चिकित्सकों की उपलब्धता शहरों में ही है और काफी महँगी भी है | इस एक बड़े कारण से ग्रामीण मरीजों को समय पर सही सलाह नहीं मिल पाती है| ऐसे में या तो मौत हो जाती है या इतनी बीमारी गंभीर हो जाती है, जिसके इलाज पर काफी खर्च करना पड़ता है|
चिकित्सा सम्बन्धी अनेक अध्ययनों में बताया गया है कि शुरुआत में ही अगर उपचार हो जाये, तो लाखों लोगों को अकाल मृत्यु से बचाया जा सकता है| चूंकि हमारे देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं, निजी अस्पताल और सरकारी डाक्टरों का गठजोड़ इतना भयानक है कि इलाज दिन ब दिन महंगा होता जा रहा है | शहर हो या गाँव नागरिकों को का इलाज के खर्च का बहुत बड़ा हिस्सा अपनी जेब से खर्च करना पड़ता है| इस वजह से लाखों परिवार हर साल गरीबी के चंगुल में भी फंस जाते हैं| ऐसी अनेक समस्याओं के समाधान के प्रयास में कुछ राज्य सरकारों ने पोस्ट-ग्रेजुएट और उच्च विशेषज्ञता के मेडिकल छात्रों के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में एक निर्धारित अवधि तक अनिवार्य रूप से सेवा करने की शर्त रखी है|
इस शर्त के विरुद्ध आंध्र प्रदेश, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल की सरकारों द्वारा रखी गयी इस शर्त के विरुद्ध मेडिकल छात्रों के एक संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी लगाई थी| इस पर अदालत ने राज्यों के नियमन को सही ठहराते हुए कहा है कि जनहित में उठाये गये इस कदम से वंचितों तक स्वास्थ्य सेवा पहुंचाने में मदद मिलेगी| मध्यप्रदेश में ऐसी कोई शर्त नहीं है, प्रदेश का अधिकांश हिस्सा गांवों में बसा है | मध्यप्रदेश सरकार को भी पंजीयन को स्थाई करने के लिए ऐसा कुछ करना चाहिए| डाक्टरों को भी अनिवार्य सेवा की शर्त को चिकित्सकों को सकारात्मकता से स्वीकार करना चाहिए और राज्यों को भी गांवों में सेवा दे रहे डॉक्टरों को समुचित सुविधाएं व संसाधन मुहैया कराना चाहिए| देहात में काम करने से इन मेडिकल छात्रों के अनुभव का दायरा भी व्यापक होगा तथा उन्हें देश की वास्तविकता की जानकारी भी होगी|
भारत में औसतन 10189 लोगों पर एक डॉक्टर है| ऐसे में हमें अभी छह लाख चिकित्सकों की दरकार है| वर्ष 2018 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफाइल के अनुसार दिल्ली में जहां 2203 लोगों के लिए एक डॉक्टर है, वहीं बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक में यह अंतर बहुत बड़ा है| एक डॉक्टर पर बिहार में 28391, उत्तर प्रदेश में19962, झारखंड में 18518, मध्य प्रदेश में 16996 छत्तीसगढ़ में 15916 तथा कर्नाटक में 13556 लोगों की जिम्मेदारी आती है| यह अनुपात कहीं से भी उचित नहीं है| कुछ समय पहले उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने भी डॉक्टरों से गांवों में काम करने और स्वास्थ्य केंद्रों को कारगर बनाने का निवेदन किया था| स्वास्थ्यकर्मियों का अभाव भी चिंताजनक है| देश के 95 प्रतिशत से ज्यादा स्वास्थ्य केंद्रों में पांच से कम लोग कार्यरत हैं|
करीब 90 प्रतिशत मौतों का संबंध विभिन्न बीमारियों से है| देश में करीब 11 लाख पंजीकृत और हर साल निकलनेवाले 50 हजार नये डॉक्टरों की संख्या के बावजूद चिकित्सकों की बड़ी कमी बेहद आश्चर्यजनक है| यदि हमारे मेडिकल छात्र गांवों में योगदान देते हैं, तो इससे देश के विकास में बड़ी मदद मिलेगी|
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।