नई दिल्ली। एक मित्र की पत्नी मुम्बई गई हुई हैं, उन्होंने दोपहर भोज पर मेरे समेत कुछ मित्रों को बुला लिया।दुनिया की बातें सिमट कर भोपाल शहर उसकी सड़के, अधूरे ओव्हरब्रिज़ स्मार्ट सिटी और अन्य नागरिक जरूरतों पर आकर टिक गई, नेता विधायक सांसद और राजनीतिक दल और उनकी गति को कोसने के बाद यह बात भी आई कि नागरिक खुद आन्दोलन क्यों नहीं करते ? सच बात यह है कि गाँधी के इस देश में अब आन्दोलन और शांति प्रिय आन्दोलन करना मुश्किल होता जा रहा है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि यदि आज गाँधी जी होते और आन्दोलन करना चाहते तो भी नही कर पाते। मेरे एक परम मित्र गाँधीवादी है, पर लोहिया के ज्यादा नजदीक हैं एक बरस पहले दिल्ली में जो भोग कर आये हैं, वो भारत में शांतिप्रिय जन आन्दोलन का पूर्ण विराम है | अब तो जिस व्यवस्था के खिलाफ आन्दोलन करना हो उससे ही अनुमति लेने का चलन है, उनकी मर्जी पर आपकी अर्जी की सुनवाई होगी। भोपाल में सालों बाद स्मार्ट सिटी बनाने के तरीके और जगह के विरोध में कुछ चेतना जगी थी। चेतना से मीडिया थोडा चेता, आंशिक सफलता भी मिली।
वैसे यह तय है दिल्ली हो या कोई भी अन्य शहर शांति प्रिय नागरिक आन्दोलन नहीं कर सकता| गुलाम भारत में गांधी जी अवज्ञा आन्दोलन कर देते थे, आजाद भारत में सरकार के खिलाफ आन्दोलन के लिए सरकार की ही अनुमति [अनुज्ञा] लगती है। सरकार की पहलवान पुलिस, जगह, फला टेंट हॉउस, फलां साउंड सर्विस को ही काम देने की हामी के बाद, सरकार के कारिंदे कलेक्टर के नाम से अनुमति देती है| इतना ही नही सरकार के जिस मुखिया को ज्ञापन सौंपना होता है, वो तो आन्दोलनकारियों से मिलने में अपनी हेठी समझते हैं। पुलिस के हेड साब ज्ञापन पर चिड़िया बना कर आन्दोलन को हवा कर देते हैं। भोपाल और अन्य शहरों में आप आन्दोलन और आन्दोलनकारियों की फजीहत देख सकते हैं. अब आन्दोलन या तो सरकार की चिरौरी से हो सकते हैं या अपने कमरे में चुपचाप।
कुछ आन्दोलन बड़े लाभ भी देते हैं| जैसे दिल्ली में खम्बे पर चढ़ कर बिजली जोड़ने वाला मुख्यमंत्री बन गया | गाँधी ने कभी बिजली नहीं जोड़ी सारे आन्दोलन अहिंसक किये| अब अनुमति का मकडजाल आन्दोलन की हवा निकाल देते हैं और जिस सरकार के खिलाफ आन्दोलन हो रहा है, वो प्रतिपक्षी हुई तो बंगाल जैसा होने में देर नहीं लगती| आज भारतीय राजनीती में जन आन्दोलन एक झांकी है | इस झांकी में पुलिस आज भी सरकार की गुलाम नजर आती है | नेता भी अपने को कहते जनसेवक हैं, पर उनकी शक्ल माफिया की होती जा रही है | शायद आज गाँधी जी आज होते तो सत्याग्रह नहीं करते|
कहने को भारत मे जन आन्दोलन की शुरुआत स्वतंत्रता के के पहले ही हो गई थी। वर्ष 1936 मे सिविल लिबर्टीज यूनियन (सी. एल. यू.) का गठन हुआ था इसके गठन मे पंडित जवाहरलाल नेहरू की प्रमुख भूमिका रही पर आजादी मिलने के कुछ वर्षों के भीतर ही सी. एल. यू. निष्क्रिय एवं अंततः समाप्त हो गई इसका मुख्य कारण नेहरू एवं अन्य अधिकांश नेताओं का यह खयाल था कि स्वतंत्रता मिल जाने और लोकतांत्रिक संविधान लागू नो जाने के बाद नागरिक अधिकार आन्दोलन की आवश्यकता नही रह गई है ।
लेकिन अब जनांदोलन को सशक्त करने पर सोचा जाना चाहिए | वर्तमान में राजनीतिक दल येन- केन – प्रकारेण भारी बहुमत जुटाने और सरकार बनाने में सफल हो रहे हैं | संसद का एक सदन लोकसभा- करोडपति, बाहुबली और जाने कैसे- कैसे विशेषण प्राप्त विभूतियों से विभूषित है | वरिष्ठ लोगों के सदन राज्य सभा में दल बदल और निष्ठा बदल का खेल खुले आम चल रहा है | ऐसे में आपके शहर के लिए जन सुविधाएँ जुट जाये तो बहुत हैं | आन्दोलन और जन आन्दोलन के लिए इतिहास पढिये या सपने देखिये |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।