कुनिर्णय : क्या इसका कोई इलाज है ? | EDITORIAL by Rakesh Dubey

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नई दिल्ली। राजनीति के खेल बेकाबू होते जा रहे हैं। अजीब सी अराजकता मची हुई है। नियम, कायदा और नैतिकता जैसी बातें बेमानी हो रही है। जिसके जो समझ आ रहा है कर रहा है, न तो पार्टी का संविधान काम कर रहा है न देश का संविधान। अजीब से प्रयोग हो रहे हैं। कोई राज्य 5 उप मुख्यमंत्री बना रहा है तो कही सारे मंत्री केबिनेट स्तर के हैं। अब तो सबसे पुराने राजनीतिक दल (Political parties) कांग्रेस में 2-3 अध्यक्ष बनाने की बातें हो रही है। अपने को सबसे अलग कहने वाली भाजपा भी अब तक राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में अमित शाह (Amit Shah) का विकल्प नहीं खोज सकी है। पार्टी के मसले छोड़ दें तो भी 5 उप मुख्यमंत्री और सारे के सारे कैबिनेट मंत्रियों के वेतन और अन्य खर्चे जनता की गाढ़ी कमाई से निकल रहे हैं। जनता को उसके सेवक चुनने का अधिकार है तो सेवक के वेतन भत्तों और संख्या के निर्धारण का अधिकार भी उसके क्या पास नहीं होना चाहिए ?

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी (Jaganmohan Reddy) ने शुक्रवार को अपने 25 सदस्यीय मंत्रिमंडल में पांच उपमुख्यमंत्री नियुक्त किए हैं। वे ऐसा करने वाले पहले मुख्यमंत्री हैं। अगर मध्यप्रदेश की बात करें तो सारे के सारे मंत्रियों के केबिनेट का दर्जा देने का पहला प्रयोग सम्भवत: यही पहली बार हुआ है। यह गुटों को साधने की कवायद के साथ दूसरे गुट या दल के लोगों की खुली खरीद-फरोख्त का साधन भी है। राज्य मंत्री, केबिनेट मंत्री और उप मुख्यमंत्री के वेतन भत्तों और सुविधाओं में भारी अंतर है, जिसका भुगतान राज्य के उस खजाने से होता है, जिसे जनता टैक्स से भरती है। यहाँ सवाल नैतिकता और निर्णय का है, संविधान ऐसे किसी निर्णय के पक्ष में नहीं है।ऐसी सरकारें कल्याणकारी नहीं होती, ये सरकारें राज्य की जनता और राज्य से ज्यादा खुद के हित साधन में लगी रहती है। यही प्रक्रिया भ्रष्टाचार के नये आयाम खोलती हैं। राज्य के मंत्री अपने को जनता के सेवक कहते हैं, पर इनकी संख्या, वेतन और अन्य सुविधाओं के निर्णय में जनता की भागीदारी नहीं होती। ये सेवक अपना वेतन अपनी सुविधा खुद तय करते हैं। इस प्रक्रिया में वे कई बार उस प्रक्रिया को भी अपनाते है जिसे विधि की भाषा में “भयादोहन” कहा जाता है। इस सब का परिणाम मंत्रीमंडल में अनुशासनहीनता और काम न करने की प्रवृत्ति के रूप में दिखाई देती है।

यही हाल अब अपने को राष्ट्रीय दल कहने वाले दलों का है। चर्चा है कि कांग्रेस में 3 अध्यक्ष बनाने पर बात चल रही है। आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी ने कांग्रेस को विसर्जित करने को कहा था। ये निर्णय यदि उस समय हो जाता तो वंशवाद, चाटुकारिता से मुक्त कांग्रेस इस परिस्थिति में कुछ ठीक निर्णय लेती। दल के निर्णय उसकी सरकार पर बंधनकारी होते हैं। अगर वो दल भाजपा हो तो उसकी निर्णय प्रक्रिया का महत्वपूर्ण कारक “संघ की सहमति” होता है। वहां भी यही हाल है, अमित शाह का विकल्प न तो पार्टी को सूझ रहा है और न संघ को।निर्णयों में देरी का कारण बड़ा कारण सब को साधना है, प्रजातंत्र में यह होना भी चाहिए पर पूरी पारदर्शिता के साथ। जो अभी दोनों दलों में नही है। एक की डोर गाँधी परिवार की सहमति से बंधी है तो दूसरे का ताना-बाना संघ बुनता है। इस सारी निर्णय प्रक्रिया में जनता की भागीदारी नहीं होती, बड़े उद्योग घरानों की सहमति और स्वार्थ अवश्य होता है। इसे आप क्या नाम दे सकते है ? कोई उपमा समतुल्य नहीं है। ठगी आदि शब्द बहुत छोटे हैं।

आंध्र कैबिनेट में शामिल पांचों डिप्टी सीएम अलग-अलग समुदाय अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक और कापू समुदाय से होंगे। यहाँ भी भारत के संविधान की गलत व्याख्या की जा रही है “सरकार में सभी वर्गों को बराबर प्रतिनिधित्व देने की कोशिश” के नाम पर तुष्टिकरण का प्रयोग हो रहा हैं। मध्यप्रदेश में “सारे के सारे केबिनेट” का प्रयोग भी गुटीय तुष्टिकरण का का नमूना है। आये दिन सरकार में शामिल अन्य दल घुड़की देते रहते हैं। इस सबके पीछे प्रमुख कारण राजनीतिक दलों के भीतर प्रजातंत्र का अभाव है। एक की दृष्टि में संघ की अनुकूलता का स्थान सर्वोपरि है दूसरे की दृष्टि में गाँधी [?] परिवार की कृपा दृष्टि।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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