नया आर्थिक मॉडल बनाइये, सरकार ! | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई सरकार काम करने लगी है ? यह सवाल मुझसे कई  लोगों ने पूछा। इनमें ऑटो रिक्शा चालक, छोटे दुकानदार से लेकर बैंकर भी है। सबके सवाल के पीछे देश के आर्थिक मूड को भांपने और भविष्य की नीति को समझने की कोशिश है। अब सवाल सरकार की तरफ है, उसका रुख अर्थ नीति के किस माडल की ओर जायेगा। क्या वो गरीबों की मदद करेगी ? क्या उसकी अर्थ नीति पिछले कार्यकाल की भांति कुछ बड़े लोगों को प्रश्रय देने की होगी ? क्या उसे फिर मुद्रा नियन्त्रण के लिए फिर से नोट बंदी जैसे कुछ कदम उठाना होंगे ? 

सरकार ने अपना पहला कदम छोटे व्यापारियों के लिए पेंशन की घोषणा करके अपने वायदे को निभाया है। सच में सरकार अगर गरीबों की मदद करना चाहती हैं और उसका श्रेय लेना भी, तो सरकार चीन की तरह खुलकर पूंजी समर्थक नीतियों को अपनाना होगा। उसे यह भी याद रखना होगा कि पूंजी समर्थक होने का मतलब पूंजीवाद समर्थक होना नहीं है। वह कांग्रेस का तरीका था जहां सरकारी निवेश के पक्ष में निजी पूंजी को नकारा गया और सरकारी क्षेत्र पर तरजीह देकर मनोनुकूल निजी पूंजीपतियों को बढ़ावा दिया गया। इस माडल में परिवर्तन के लिए एक  ईमानदार कोशिश चाहिए।

विश्व का आर्थिक इतिहास बताता है कि जिन सरकारों ने निजी पूंजी का सहयोग किया उनकी वृद्घि दर बेहतर रही। इस तरह देखें तो ऐसे कानूनों की आवश्यकता है जो पूंजी में भेद नहीं करते, उन्हें व्यापक और गहरा बनाने की दृष्टि से भी यह अनिवार्य हैं। चीन ने ऐसा ही किया है।  सन 1970 से ही भारत इस दिशा में विफल रहा है। उसके पहले हमें इसमें काफी सफलता मिलती रही है। सन 1970 के बाद नीतिगत ध्यान राजनीति प्रेरित और वाम प्रेरित पुनर्वितरण नीतियों की ओर हो गया। इसकी कीमत निवेश और वृद्घि के मोर्चे पर चुकानी पड़ी।इस बारे में कुछ अर्थ शास्त्रियों ने तब खुलकर लिखा भी था।

मोदी अपने पहले कार्यकाल में इसी पर चले इसे समाप्त नहीं किया, क्योंकि वह दोबारा चुनाव जीतना चाहते थे। वह नहीं चाहते थे कि उनके साथ वह दोहराया जाए जो अटल बिहारी वाजपेयी के साथ हुआ। अब जबकि दोबारा उनकी सरकार बन चुकी है, उन्हें देश को दोबारा निवेश बढ़ाने पर जोर देना चाहिए। यह विचार का बिंदु है नेहरू को सरकारी नेतृत्व वाले निवेश का रुख इसलिए करना पड़ा था, क्योंकि निजी क्षेत्र ने अपने हाथ खड़े कर दिए थे। अब माहौल बदल गया है, वैसी कोई बात नहीं है निजी क्षेत्र पुंजी निवेश को तैयार है और सरकार को इस दिशा में आगे बढऩा चाहिए। 

वस्तुत: यह नेहरूवादी मॉडल से उचित प्रस्थान होगा। तमाम नीतियां, कर, आयात, ब्याज दर और विनिमय दर आदि को निजी क्षेत्र के अनुकूल बनाया जाना चाहिए। सरकारी क्षेत्र की भूमिका सीमित होनी चाहिए। हर क्षेत्र में सरकारी दखल से व्यापार एक अभिशाप है। आशय यह नहीं है कि सार्वजनिक निवेश नहीं होना चाहिए। होना चाहिए, लेकिन उसे परिवहन और सामाजिक बुनियादी क्षमताएं विकसित करने तक सीमित रखा जाना चाहिए, चीन की तरह। यहां तक कि बिजली क्षेत्र, जिसे कांग्रेस अधोसंरचना क्षेत्र मानती रही है, उसका भी निजीकरण किए जाने की आवश्यकता है। यह राज्य सरकारों के राजकोष पर बोझ बन चुका है। एक बार फिर ठीक चीन के तर्ज पर हमें सरकारी जमीन को बड़े निजी कारोबारियों को बेचना चाहिए ताकि वे वहां कार्यालय और आवास बना सकें। यह ऐसा क्षेत्र है जिसकी मांग हमेशा बनी रहती है। यह निवेश में कई गुना इजाफा करने वाली बात होगी। 

निष्कर्ष यह है कि सरकार को अब कांग्रेस का अनुकरण करना बंद कर देना चाहिए। अब बहुत हो गया। सरकार को  उस मॉडल से निजात पाकर निजी पूंजी का समर्थन करना चाहिए। अब भारत को सही मायने में निजी उद्यमों के नेतृत्व वाली अर्थव्यवस्था बनाना चाहिए। जिसमें सरकार दृष्टा हो, नियंत्रक हो, पर भागीदार और व्यापारी नहीं। 
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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