अर्थ नीति में विफलता, आयतित सोच एकमात्र कारण | EDITORIAL by Rakesh Dubey

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नई दिल्ली। यह लगभग तय सा नजर आ रहा है कि विरल आचार्य भी पहले अर्थशास्त्रियों अरविंद सुब्रमण्यन, रघुराम राजन और अरविंद पानगडिय़ा की तरह पश्चिमी जगत में लौट जाएंगे। यह बात अलग है की इस घटना पर उतनी तेज प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिलेगी जितनी राजन की शिकागो वापसी के वक्त देखने को मिली थी। देश में उस चिंता को भी उतनी तवज्जो नहीं मिल रही है जो आचार्य ने केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता को लेकर दिए अपने मशहूर भाषण में जताई थी। अब सवाल बतौर वित्त मंत्री दिए गए अरुण जेटली के उस बयान और उससे उपजे इस सवाल पर है की देश के सामने इसका कोई विकल्प है या नहीं। क्या जेटली ठीक थे कि मोदी सरकार की गलतियों में से एक विदेशों से अर्थशास्त्रियों को लाना भी थी।

अब यह आम धारणा होती जा रही है कि जब भी देश से कोई शीर्ष अर्थशास्त्री बाहर जाता है तो इसका नुकसान देश को होता है। परंतु विषय विशेषज्ञ गलत भी हो सकते हैं। आचार्य की अकादमिक काबिलियत और केंद्रीय बैंक के कामकाज में उनकी विशेषज्ञता को व्यापक तौर पर स्वीकार किया गया लेकिन रिजर्व बैंक में उनके प्रदर्शन पर उठे सवालों का उन्हें जवाब देना चाहिए। उनकी निगरानी में RBI का वृहद आर्थिक विश्लेषण मुद्रास्फीति और आर्थिक वृद्धि दर के मामले में गलत साबित हुआ। इन दोनों का अतिरंजित अनुमान लगाया गया। इसी कारण ब्याज दर नीति के मामले में भी उनकी सलाह गलत थी। उन्होंने आरबीआई द्वारा की गई दो हालिया कटौतियों का विरोध किया था।

सवाल देश के नजरिये का भी है। भारतीयों के साथ कारोबार कर रहे विदेशी पाते हैं कि भारतीय असहमत होने पर कभी सीधे ना नहीं कहते। इसके बजाय वे बात बदल देते हैं या अप्रत्यक्ष संकेत देने लगते हैं। यह अमेरिका से एकदम उलट है जहां अपनी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए सीधे नकार का इस्तेमाल किया जाता है। भारत सरकार के साथ काम करने वाले लोग भी उसके खिलाफ सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहते। अगर आप रिजर्व बैंक के गवर्नर या डिप्टी गवर्नर हों तो आपको आम नागरिक के समान अभिव्यक्ति की आजादी हासिल नहीं होती। तब मतभेदों पर आंतरिक बातचीत ही होती है। ऐसे में जब राजन और आचार्य ने खुलकर अपनी बातें कहीं तो इसे ठीक नहीं माना गया। नोटबंदी जैसे मसले पर जहां राजन को अपनी राय साफ तौर पर रखनी थी जो नहीं हुआ और देश को नुकसान ही हुआ |

इसी तरह वित्त मंत्रालय ने अरविंद सुब्रमण्यन के कई नीतिगत नुस्खों की सरकार ने अनदेखी की,परंतु वस्तु एवं सेवा कर की आदर्श दर पर उनकी रिपोर्ट को परोक्ष स्वीकृति मिल गई। कई दरों के उनके विरोध को भी उनकी विदाई के बाद आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया गया। सुब्रमण्यन को सरकार की वार्षिक आर्थिक समीक्षा के विश्लेषण की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए भी जाना जाता है। हाल ही में उन्होंने वृद्धि के आधिकारिक आंकड़ों पर सवाल उठाया है, उसके बाद संभवत: उनको अवांछित ही माना जाएगा।इसी तरह नीति आयोग में अरविंद पनगडिय़ा जल्दी आए और दो वर्ष पहले उन्होंने उससे दूरी भी बना ली। उन्हें प्रधानमंत्री के साथ उतना समय बिताने का मौका नहीं मिला जितनी उन्होंने अपेक्षा की होगी। शायद वृहद आर्थिक नीति को लेकर उनकी सुधारवादी सोच मोदी सरकार से मेल नहीं खाती थी। मोदी सरकार की रुचि कार्यक्रमों और परियोजनाओं में अधिक थी। वह मुद्दों पर आधारित सुधार में रुचि रखती थी, मिसाल के तौर पर चिकित्सा शिक्षा सुधार। यहां नीति आयोग ने अपनी भूमिका भी निभाई लेकिन तटीय आर्थिक क्षेत्र जैसे पानगडिय़ा के बड़े विचार फलीभूत नहीं हो सके।

सवाल वही का वही है आज, जब वृद्धि दर में गिरावट है और हर दिशा से वृहद आर्थिक चुनौतियां आ रही हैं, तो क्या सरकार को हार्वर्ड शिक्षित अर्थशास्त्रियों की राय से लाभहो रहा है ? शायद नहीं सोच को बदलना होगा और ख़ास देशी आर्थिक सोच रखने वालों को पुन: प्रतिष्ठा देनी होगी।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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