नई दिल्ली। हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने पर विवाद जारी है। बावजूद इसके कि हर जनगणना में हिंदी बोलने वालों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। जनगणना 10 बरस में होती है | 2001 से 2011 के बीच इसमें करीब दस करोड़ का इजाफा हुआ था। अब अगली जनगणना 2021 में होगी, तमाम विरोधों के बावजूद, बढ़ोतरी की रफ्तार जारी रहेगी। इसकी सबसे बड़ी और पहली वजह मनोरंजन और मीडिया है तो दूसरी और बड़ी और भारी वजह रोजी-रोटी है। यह बात साफ दिखती है कि देश के नागरिकों ने अपने पुराने आग्रहों को तोडा है, बनते-उभरते महानगरों की ओर रुख किया है। जनगणना के पिछले आंकड़ों के अनुसार, दक्षिणी क्षेत्रों में हिंदी, उड़िया और असमिया भाषा बोलने वालों की संख्या भी 33 प्रतिशत बढ़ी है। आंकड़े कहते हैं, हैदराबाद, बेंगलुरु, चेन्नई, जैसे शहरों के वाणिज्यिक उभार के बाद देश के पूर्वी और उत्तरी लोगों ने वहां जगह बनाई है। उनकी समृद्धि के साथ हिंदी भी वहां समृद्ध हुई है।
आज हिंदी का विरोध उतना नहीं है, जितना पहले कभी होता था। भारत ने तो आजादी से पहले ही इसका स्वाद चख लिया था। 1937 में जब मद्रास प्रेसीडेंसी में कांग्रेस की सरकार गठित हुई, तो सी राजगोपालाचारी ने स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य कर दी थी| तब पेरियार और तमाम तमिलवादी नेताओं ने उसका मुखर विरोध किया। आंदोलन उग्र हो गया था । कई जगह बल प्रयोग और एकाधिक व्यक्ति को जान भी गंवानी पड़ी थी । तब से अब तक इस प्रदेश में तमिल पार्टियां हिंदी का विरोध करती आई हैं। भाषाएं और बोलियां उन रिश्तेदारों की तरह होती हैं, जिन्हें अपनाया जाता है। दक्षिण मनोरंजन और अपनी कुछ अनिवार्य जरूरतों के लिए हिंदी का उपयोग करता है। उसे इसे अपनाने से क्यों गुरेज है ? आज़ादी के बाद से हमारी संसद तक इस तरह के हंगामे से अछूती नहीं रही। लंबे बहस-मुबाहिसे के बाद 1968 में ‘ऑफिशियल लैंग्वेज रिजॉल्यूशन’ पारित किया गया। इसके तहत हिंदीभाषी राज्यों में हिंदी के साथ कोई अन्य भारतीय भाषा पढ़ाई जानी थी और अहिंदीभाषी राज्यों में स्थानीय भाषा और अंग्रेजी के साथ हिंदी का पठन-पाठन होना था। यह त्रिभाषा फॉर्मूला पूरे देश ने अपनाया, पर तमिलनाडु अपनी जिद पर अड़ा रहा। यह जिद आज भी कायम है।
आज प्रतिरोध बढ़ता देखकर केंद्र सरकार ने सफाई दे दी कि हम हिंदी को किसी पर भी थोपना नहीं चाहते। राजनीति भाषाओं के मामले में हमेशा एक कदम आगे और दो कदम पीछे की नीति अपनाती रही है। इसका खामियाजा देश को भुगतना पड़ा है। आज़ादी के बाद की पीढ़ी के हिंदीभाषी जब आंखें खोल रहे थे, तभी लोहिया ने ‘अंग्रेजी हटाओ’ आंदोलन की शुरुआत की थी। तमाम लोग भावनावश अंग्रेजी का बहिष्कार कर बैठे। सुनने में अच्छा लगता था कि सोवियत संघ, चीन, फ्रांस अथवा जर्मनी ने अगर बिना अंग्रेजी के इतनी तरक्की कर ली, तो हिन्दुस्तान हिंदी के साथ आगे क्यों नहीं बढ़ सकता, पर इससे नुकसान हुआ।अल्प अंग्रेजी ज्ञान की वजह से हिंदीभाषियों को रोटी-रोजगार के कई मोर्चों पर आगे चलकर जटिलताओं का सामना करना पड़ा। ठीक वैसे ही, जैसे तमिलभाषी जब दिल्ली अथवा देश के उत्तरी या पश्चिमी हिस्सों में जाते, तो उन्हें कर्नाटक अथवा अविभाजित आंध्र के मुकाबले अधिक दिक्कत पेश आती। हम अपनी भाषा पर गर्व करें, उसे प्यार करें, यह बहुत अच्छा है, पर अगर हम अन्य भाषाओं के लिए दरवाजे बंद कर देंगे, तो मुश्किल हो जाएगी।
समग्र विचार की जरूरत है | अपनी आवश्यकता को देश के नागरिक बखूबी समझते हैं | नेताओं के राजनीतिक खेल हमेशा सौहाद्रपूर्ण वातावरण को बिगाड़ते हैं | कम से कम इस मामले में नेताओं की कोई जरूरत नहीं है, नागरिक आसानी से देश में बोधगम्य संवाद करते हैं और उसका माध्यम हिंदी था है और रहेगा |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।