यही हाल रहा तो कभी नहीं जीत पाएगी कांग्रेस | MY OPINION by VIRENDRA VISHWAKARMA

Bhopal Samachar
इस लोकसभा चुनाव में सबसे करारी हार कांग्रेस की हुई है। बड़े बड़े दिग्गज कांग्रेसी चुनाव हार गए हैं। इस हार के पीछे न तो कोई नेता जिम्मेदार है और न ही पार्टी नेतृत्व। यदि कोई जिम्मेदार है तो कांग्रेस की अपनी नीतियां,हिन्दुत्व के नाम पर पार्टी द्बारा किए जा रहे कथित पाखंड जैसे कई कारण है। जिसके चलते इस देश ने कांग्रेस को नकार दिया है। कांग्रेस के पास न तो चुनाव जीतने की कोई रणनीति होती है और न ही कोई ऐसी नीति या घोषणाएं होतीं है जो सीधे तौर पर मतदाताओं को आकर्षित कर सकें। केवल चुनाव जीतने के लिए रणनीति बनती है जिसमें मतदाता कहीं से कहीं तक दिखाई नहीं देता है। केवल विरोधियों के आरोपों को काउंटर करने के अलावा कांग्रेस के पास अपने न कोई मुद्दे होते हैं और न ही ऐसा कोई पांसा होता है जिसमें भारतीय जनता पार्टी जैसे दल को फंसाया जा सके। यही नहीं जब कांग्रेस के पास जनता का दिल जीतने का मौका आता है तो वो उस मौके को भुना भी नहीं पाती है।

आरिफ मसूद पर कंट्रोल नहीं कर पाई कांग्रेस

आपको याद होगा जब मप्र विधानसभा में कांग्रेस विधायक आरिफ मसूद ने हिन्दी में शपथ लेने से इंकार किया और उर्दू में शपथ ली। ऐसे में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को विरोध करना था और हिन्दी में शपथ लेने के लिए उन्हे बाध्य करना था लेकिन किसी कांग्रेसी विधायक ने हिम्मत नहीं जुटाई। जरा सोचिए यदि ऐसा होता तो निश्‍चित ही हिंदू मतदाताओं के मन में कांग्रेस के प्रति एक अलग छवि बनती। इधर कांग्रेस सॉफ्ट हिन्दुत्व की बात करती है और बार बार खुद को श्रेष्ठ हिन्दु बताने की कोशिश करती है, उधर उन्ही का विधायक हिंदी में शपथ लेने से परहेज करता है। ऐसे दोहरे चरित्र को मतदाता अच्छी तरह समझता है। 

15 लाख से जले लोग 72 हजार पर भरोसा क्यों करेंगे

दूसरा कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में न्याय योजना की घोषणा की। साल में 72 हजार रूपए देने का वादा किया। समूची पार्टी ने इस योजना से मतदाताओं का दिल जीतने की ठान ली। किसी ने नहीं सोचा कि 2014 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा ने सभी के खाते में 15 लाख रूपए जमा करने का भरोसा दिलाया और वो वादा पूरा नहीं किया गया तो आपकी न्याय योजना पर लोग कैसे भरोसा करेंगे? लोग तो पूछेगें कि जब मोदी 15 लाख नहीं दे पाए तो कांग्रेस 72 हजार कहां से देगी। इस सवाल का जवाब भी पार्टी, मतदाताओं तक ठीक से नहीं पहुंचा पाई। 

गोडसे और गांधी में उलझकर रह गई कांग्रेस

इसके अलावा भाजपा की तरफ से पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भ्रष्ट बताया गया, तो भोपाल से भाजपा उम्मीदवार प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने नाथूराम गौडसे को देशभक्त बता दिया। इन्ही मुद्दों पर कांग्रेस इतनी ज्यादा व्यस्त हो गई कि कुछ नया करने की सोच ही नहीं पाई। विरोधियों द्बारा चुनाव में इस तरह के मामले जानबूझकर उछाले जाते हैं ताकि लोग इसमें उलझ जाएं। गया वो जमाना जब विरोधियों के सवालों का जवाब देना या उन्हे गाली देकर चुनाव जीता जा सकता था। आपने चौकीदार चोर का नारा चलाया,जिसका कहीं कोई असर नहीं दिखा। मतलब साफ है विरोधियों को जितना ज्यादा गाली दी जाएगी उतना ही विरोधी मजबूत होगा। अब वक्त बदला है लोग शिक्षित हुए है उन्हे विश्‍लेषण करना आता है। सही और गलत को परखना भी आ गया है वे किसी झांसे में नहीं आते है। यहां तक की शराब और पैसे बांटकर भी अब मतदाता को खरीद पाने की संभावना बहुत कम रह गई है। लोग जब पार्टी चुनने के लिए आत्मचिंतन करते हैं तो वे सबसे पहले खुद को देखते हैं और खुद से प्रश्‍न करते हैं कि हमें सरकारी लाभ कितना और कैसे मिला। उसने अपने सही काम के लिए कितने लोगों को रिश्‍वत खिलाई। तब जाकर तय करता है कि वोट किस को देना है। 

योजनाओं को लेकर दुविधा

मप्र में कांग्रेस सरकार है। पार्टी के पास लोगों के दिल जीतने का बहुत शानदार मौका था। लेकिन पूरे राज्य में फैला दिया गया कि जनकल्याणकारी योजनाएं राज्य सरकार ने बंद कर दीं। बंद हुई कि नहीं कोई अधिकृत जानकारी लोगों को नहीं मिली। लेकिन उन लोगों में जरुर गुस्सा भर गया जो सरकारी खर्चे पर तीर्थ यात्रा की तैयार कर रहे थे। वे लोग भी नाराज दिखे जिनके बच्चों को कॉलेज की पढ़ाई के लिए सरकारी सहायता मिलना थी। या फिर संबल योजना के तहत जो 200 रुपए प्रति माह में बिजली जला रहे थे फिर उनके यहां हजारों के बिल पहुंचने लगे। यही नहीं कई ठेकेदारों का भुगतान सरकार ने सिर्फ इसलिए रोक दिए कि खजाना खाली है। जिसकी वजह से हजारों मजदूरों और श्रमिकों को भुगतान नहीं होने से नाराजगी बढ़ गई। सीधा सा सवाल है जब लोकसभा चुनाव हैं और राज्य सरकार इस तरह का रवैया अपनाएगी तो आमजन में आक्रोश पनपना स्वाभाविक है। कुछ इसी तरह का हाल छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी बताया जा रहा है। यही वो गुस्सा था जिसके कारण कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया।  

कर्ज माफी का वादा अधूरा 

विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में कहा था कि जीत हासिल करने के बाद वह 10 दिन के भीतर किसानों के दो लाख के भीतर के कर्ज माफ कर देंगे। लोगों ने इस वादे पर ऐतबार करते हुए कांग्रेस को सत्ता में ला दिया, लेकिन कुछ ऐसा होता रहा कि यह वह पूरी तरह से वादे पर अमल नहीं कर पाई। कांग्रेस सरकार में इस बारे में 10 दिन के अंदर आदेश तो जारी किया किया लेकिन कुछ किसानों के बेहद कम राशि के कर्ज माफ हुए। प्रक्रिया में भी देर हुई, ऐसे में कांग्रेस ने बचाव में कहा कि चुनाव आचार संहिता लागू होने के कारण वादे को पूरा करने में देर हुई। बहरहाल यह तर्क किसानों को पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर पाया।

बिजली का गुल होना फिर शुरू

बिजली के मामले में बीजेपी सरकार के समय में अच्छी स्थिति रही। गांवों और तहसील क्षेत्रों में भी पावरकट नहीं के बराबर था लेकिन कांग्रेस की सरकार आते ही पावर कट का दौर शुरू हो गया। बीजेपी ने इसे मुद्दा बनाया। पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान ने अपनी सभाओं में कहा, लालटेन का फिर से इंतजाम कर लीजिए, कांग्रेस की सरकार आ गई है और बिजली कटौती शुरू हो गई है। दिग्विजय सिंह जब राज्य के सीएम थे तब गांवों में ही नहीं शहरों में भी पावरकट आम बात थी। राज्य की कांग्रेस सरकार ने इसके लिए केंद्र की बीजेपी सरकार पर दोष मढ़ा लेकिन यह बात भी लोगों के गले नहीं उतरे।

विकास के लिए रोडमैप का अभाव

इस बार का लोकसभा चुनाव में विकास से कोसों दूर रहा। कांग्रेस को चाहिए था कि विकास के नाम पर चुनाव ल़ड़ती। भाजपा के आरोपों का जवाब देने से ज्यादा बेहतर होता कि विकास का कोई ऐसा रोडमैप तैयार करते तो लोगों के गले उतरता। हर सवाल का जवाब पार्टी के प्रत्येक कार्यकर्ता की जुबान पर होना था। जैसे न्याय योजना थी, पैसा कहां से और कैसे आएगा, का जवाब पार्टी के लोगों के पास होना था। लोग शिक्षित हैं और तर्क कुतर्क में माहिर हो गए है। ऐसे तर्क कुतर्को का जवाब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल लेकर चुनाव लड़े थे और सफल हुए थे। वे कितना काम कर पाए नहीं कर पाए वो अलग विषय हो सकता है। लेकिन उन्होने कहा था कि बिजली बिल कम करेंगे तो कैसे करेंगे उन्होने लीकेज सीपेज बंद करने की पूरी रणनीति मतदाताओं के सामने रखी थी। कांग्रेस के पास बेहतर मौका था विकास का एक पूरा एजेंडा लेकर आना था और मतदाता के सामने रखना था। 

कड़वे सच को भी स्वीकारना होगा

पार्टी के कई बड़े दिग्गजों के आस-पास तमाम लोगों की फौज घूमती दिखती है। ये वो फौज है जो वोट नहीं दिला सकती। महज अपने निजी स्वार्थो की पूर्ति के लिए आस पास दिखाई देते हैं और चुनावी जीत की ढींगे मारते दिखते हैं। साहब ने जो कहा उसी पर तत्काल हॉ हो जाती है। माहौल ऐसा होता है कि कोई सच कहने और सही रोडमैप रखने का साहस नहीं कर पाता है। इस सच्चाई को भी स्वीकारना होगा कि न तो कोई चुनाव जिता सकता है और न ही हरा सकता है। यदि ऐसा होता तो भाजपा के तमाम नेता इस लोकसभा चुनाव में हार गए होते। गुटबाजी और विरोधी सभी दलों में होते हैं बिना इसके किसी भी दल का अस्तित्व ही नहीं हो सकता है।  

कांग्रेस नेताओं की सियासी खींचतान

कांग्रेस के लिए विधानसभा चुनाव में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जमकर मेहनत की थी ज्योतिरादित्य को सीएम पद का दावेदार भी माना जा रहा था लेकिन आखिर में फैसला कमलनाथ के पक्ष में हुआ। लोकसभा चुनाव के दौरान सिंधिया को पश्‍चिमी यूपी का प्रभार दे दिया गया। इस कारण वे मध्यप्रदेश के चुनावों में ज्यादा वक्त नहीं दे पाए। एक और दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह को भोपाल से उम्मीदवार बनाकर कांग्रेस ने बड़ा दांव खेला था। अंदरखाने इस बात की चर्चा है कि कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव एकजुट होकर नहीं लड़ा। दिग्विजय को भोपाल सीट पर अकेला ही छोड़ दिया गया। कुछ सूत्र तो यहां तक कहते हैं कि यदि दिग्विजय जीतते तो राज्य की सियासत में उनकी फिर से एंट्री हो जाती और वे भविष्य में सीएम कमलनाथ के लिए चुनौती बन सकते थे। इसी तरह ज्योतिरादित्य सिंधिया का चुनाव के आखिरी दौर की वोटिंग के पहले निजी कारणों से अमेरिका जाना भी लोगों के गले नहीं उतरा। भोपाल लोकसभा सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस उम्मीदवार दिग्विजय सिंह की तारीफ की जानी चाहिए कि तमाम विपरीति परिस्थितियों में उन्होने बेहतर मैनेजमेंट के साथ पूरी ताकत से चुनाव लड़ा। उनका प्रबंधन वास्तव में अनुकरणीय था। 
वीरेन्द्र विश्‍वकर्मा से संपर्क मो.7999441419
MY OPINION समाज के बुद्धिजीवी वर्ग का कॉलम है। कृपया अपने मूल लेख/विचार इस ईपते पर भेजें: editorbhopalsamachar@gmail.com
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