आने वाली नई सरकार को आते ही श्रमिक समस्या से दो-दो हाथ करना होगा |देश में श्रमिकों का जीवन बद से बदतर है, जबकि आजादी के बाद से ही देश की सभी सरकारों द्वारा कल्याणकारी योजनाओं और सुधारात्मक कानून के जरिए कृषि श्रमिकों, बाल श्रमिकों, महिला श्रमिकों एवं संगठित क्षेत्र के श्रमिकों के जीवन स्तर को सुधारने की दिशा में प्रयास किया जाता रहा है। लेकिन कोई क्रांतिकारी बदलाव देखने को नहीं मिला है। कृषि-श्रमिकों का वर्ग भारतीय समाज के सबसे दुर्बल अंग बन चुका है। यह वर्ग आर्थिक दृष्टि से अति निर्धन तथा सामाजिक दृष्टि से अत्यंत शोषित है। ये गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजारने को विवश हैं। अधिकांश कृषि-श्रमिक भूमिहीन तथा पिछड़ी, अनुसूचित जाति एवं जनजातियों से हैं। इनके बिखरे हुए एवं असंगठित होने के कारण किसी भी राज्य में इनके सशक्त संगठन नहीं बन सके है| इनके अधिकारों की रक्षा करने के लिए कोई आगे नहीं आता , जिससे इनकी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं।
एक सर्वे के अनुसार देश में कृषि मजदूरों की संख्या में हर वर्ष बढ़ोतरी देखने को मिल रही है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2001 में जहां 10 लाख 68 हजार कृषि-श्रमिक थे, उनकी संख्या 2011 में बढ़कर 14 करोड़ 43 लाख हो गयी। आज 2019 में कृषि-श्रमिकों की संख्या 15 करोड़ के पार पहुंच चुकी है।खास बात यहहै कि स्थिति तब है जब कृषि-श्रमिकों के कल्याण के लिए देश में रोजगार के विभिन्न कार्यक्रम मसलन 'अंत्योदय अन्न कार्यक्रम', 'काम के बदले अनाज', 'न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम', 'जवाहर रोजगार योजना,' 'रोजगार आश्वासन योजना' एवं 'महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी योजना' जैसी कई योजनाएं चलाई जा रही हैं।
अब तो खेती करने वाले किसान ही कृषि-श्रमिक बन रहे हैं। दरअसल प्रकृति पर आधारित कृषि, देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ एवं सूखा का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की क्षति और ऋणों के बोझ ने किसानों को दयनीय बना दिया है और वे अपना भरण-पोषण के लिए श्रमिक बनने को विवश हैं। विडंबना यह है कि सरकार ने कृषि-श्रमिकों आर्थिक एवं सामाजिक दशाओं में सुधार के लिए न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 बनाया है, लेकिन इस अधिनियम के प्रावधानों का कड़ाई से पालन नहीं हो रहा है। सरकार इस अधिनियम के प्रावधानों का कड़ाई से पालन कराए तथा श्रमिकों के कार्य के घंटों का नियमन करे। यह भी सुनिश्चित करे कि अगर कृषि-श्रमिकों से अतिरिक्त कार्य लिया जाता है तो उन्हें उसका उचित भुगतान भी हो। भूमिहीन कृषि-श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए उन्हें भूमि दी जानी चाहिए। जोतों की अधिकतम सीमा के निर्धारण द्वारा प्राप्त अतिरिक्त भूमि का उनके बीच वितरण किया जाना चाहिए।भू आंदोलन के अंतर्गत प्राप्त भूमि का वितरण करके भी उनके जीवन स्तर में सुधारा लाया जा सकता है।
महिला श्रमिकों की हालत और भी दर्दनाक है।एक सर्वे के अनुसार विश्व के कुल काम के घंटों में से महिलाएं दो तिहाई काम करती हैं लेकिन बदले में उन्हें सिर्फ 10 प्रतिशत ही आय प्राप्त होती है। भारतीय संदर्भ में महिला श्रमिकों की बात करें तो पिछले दो दशक के दौरान श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है और भारत में अधिकत महिलाएं विशेष रुप से ग्रामीण महिलाएं कृषि कार्य में हैं। साथ ही चिंता की बात यह है कि उन्हें उनके परिश्रम का उचित मूल्य और सम्मान नहीं मिल रहा है। यही नहीं एक श्रमिक के रुप में महिला श्रमिक की पुरुष श्रमिक से अलग समस्याएं होती हैं जिनकी श्रम कानूनों में कोई उल्लेख नहीं है। उचित होगा कि सरकार इस दिशा में सुधारवादी कदम उठाए और महिला श्रमिकों को आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा से लैस करे। संगठित और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की हालत भी बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। उनका शोषण जारी है।
देश के संगठित क्षेत्र में 20 हजार से अधिक श्रमिक संगठन हैं और वे अपनी समस्याओं को पुरजोर तरीके से उठाते हैं और सरकार से अपनी मांग पूरा कराने में भी कामयाब हो जाते हैं। लेकिन असंगठित क्षेत्र को यह लाभ नहीं मिल पाता है। छोटे व सीमांत किसान, भूमिहीन खेतीहर मजदूर, हिस्सा साझा करने वाले, मछुवारे, पशुपालक, बीड़ी रोलिंग करने वाले, भठ्ठे पर काम करने वाले, पत्थर खदानों में लेबलिंग एवं पैकिंग करने वाले, निर्माण एवं आधारभूत संरचनाओं में कार्यरत श्रमिक, चमड़े के कारीगर इत्यादि असंगठित क्षेत्र के श्रमिक हैं| इनकी समस्याएं भी कम नहीं है | आने वाली सरकार का साबका इनसे भी होगा, आने वाली सरकार को अभी से तैयार हो जाना चाहिए |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।