शैक्षणिक त्रासदी -2: नये तरीके सोचिये | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। इस विषय पर लिखे गये पिछले “प्रतिदिन [13-05-2019] की व्यापक प्रतिक्रिया हुई। अनेक फोन और संदेशों के माध्यम से यह जानने की कोशिश की गई कि इसका उपाय क्या है ? तमिलनाडु और तेलंगाना (Tamilnadu and Telangana) में छात्रों द्वारा परीक्षा परिणाम घोषित होने के बाद की गई आत्महत्या की कहानियों का सच भी पूछा गया। आज माध्यमिक शिक्षा मंडल मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) के नतीजे आये हैं, तमिलनाडु और तेलंगाना की कहानी मध्य्प्रदेश में कोई न दोहराए, इस हेतु अपील और ईश्वर से प्रार्थना। कोई यह प्रश्न कर सकता है इस सब में ईश्वर कहाँ से आ गया ? उत्तर है जब भी कोई छात्र इस कारण से आत्महत्या करता है तो उसके जिन्दा माँ-बाप भी उसी क्षण मरनासन्न हो जाते हैं, उनकी उम्मीद का किला ढह जाता है।

अब सवाल उपाय क्या ? समाज में परीक्षा परिणाम उसमे प्राप्त अंक एक अच्छी नौकरी देते है। इस कारण सारे बच्चों को सौ में सौ अंक प्राप्त करने का लक्ष्य थमा दिया जाता है। यही लक्ष्य कभी उनका बचपन छीनता है तो कभी जिन्दगी। यह एक असंभव सी बात है| सामान्य मूल्यांकन में सारे बच्चे कभी एकसमान नहीं हो सकते।पूरी कक्षा और पूरे स्कूल के शत प्रतिशत अंक प्राप्ति के दावे झूठे और बेईमानी से भरे होते हैं। इस प्रकार की उत्कृष्टता का दावा करने वाले शैक्षणिक संस्थान तो शिक्षा के नाम पर चल रहे बाज़ार का हिस्सा होते है जिनका काम पालकों लूटना भर है। सबसे पहला उपाय-पालकों को यह स्कूल भेजते समय ही यह तय कर लेना चाहिए कि सब बच्चों में अलग- अलग प्रतिभा होती और सबके परिवार का माहौल अलग। इसके साथ प्रयास भी अलग-अलग होते है। इनमे सद्प्रयास और असद्प्रयास दोनों शामिल हैं। अगर बच्चे ज्ञानवान बनाना है तो नम्बरगेम को छोड़िये। कई बार असद्प्रयास नम्बर गेम जिता देते है पर ज्ञान में शून्यता ही हाथ आती है।

माध्यमिक शिक्षा मंडल मध्यप्रदेश ने 2016 में एक योजना शुरू की है। योजना का नाम “रुक जाना नहीं” है। इस योजना के तहत कई बच्चे ओपन स्कूल से फेल हुए विषयों की परीक्षा देकर फिर से मुख्यधारा में जुड़ गए। इस योजना के तहत कुछ बच्चों ने तो 84 प्रतिशत तक प्राप्त किये हैं। जो बच्चे तीन विषय में फेल हुए थे, ही अगली परीक्षा में प्रथम श्रेणी में पास हुए। रुक जाना नहीं के तहत बच्चों का साल बर्बाद नहीं होता।

इस योजना में एक साल में तीन बार परीक्षा होती है। जून, सितंबर और दिसंबर में। 2016 से शुरू हुई योजना में 2 लाख 1 हजार बच्चे पास हो चुके हैं। इस बार सीबीएसई ने भी फेल होने वाले बच्चों के लिए ऐसी ही एक योजना शुरू की है। इस सब में सबसे अधिक भूमिका आत्म विश्वास की होती है जिसके लिए सबसे पहले माता-पिता की अति महत्वाकांक्षा न होना जरूरी है। इसके बाद मार्गदर्शन की भूमिका होती है जो घर स्कूल अध्यापक और पडौस से मिल सकता है। एक परीक्षा का परिणाम कुछ होता है पर सबकुछ नहीं होता।

शिक्षा का अर्थ ज्ञान प्राप्ति के साथ आजीविका चलाना भी होता है। इसके लिए हमें शिक्षा की योजना में बदलाव करना होगा “बाबु” बनाती प्रणाली के स्थान पर “कौशलता प्राप्त” युवा का निर्माण की प्रणाली पर विचार करना होगा। 10वीं और 12वीं कक्षा उत्तीर्ण युवा के हाथ में ऐसा कोई हुनर हो जिससे वो आगे की राह पकड़ सके। अभी इस स्तर पर व्यवसायिक मार्गदर्शन देने वाले पाठ्यक्रम है ही नहीं। यदि कहीं हैं, तो वे ऊंट के मुंह में जीरे के समान। वर्तमान शैक्षणिक ढांचा परम्परागत व्यवसाय के स्थापित तन्त्र को तोड़ ही चुका है। परम्परागत व्यवसाय क्यों जरूरी है? इस पर फिर कभी।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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