नकारिये, ऐसे नेता और उम्मीदवारों को ! | EDITORIAL by Rakesh Dubey

देश में चुनाव चल रहे हैं, मीडिया दिन रात खबरें उगल रहा है | लेकिन,हर बार  आदर्श आचार संहिता के नियमों के उल्लंघन और चुनाव अधिकारियों के निर्देशों की अवहेलना की खबरें आ रही हैं, इनमे बहुत सी खबरें चिंताजनक हैं| ये खबरें  जाति या धर्म से जुड़ी भावनाओं को भड़का कर वोट लेने की कवायद हैं, जिसकी आदर्श चुनाव संहिता में साफ मनाही है| सिर्फ नोटिस और उसका जवाब कोई हल नहीं है |

कहने को प्रत्याशियों के बीच आरोप-प्रत्यारोप को दावों, वादों, नीतियों और कार्यक्रमों तक सीमित रखने का निर्देश है| इसके विपरीत जातिगत और धार्मिक पहचानों के आधार पर खुलेआम वोट मांगने तथा आलोचना की जगह अभद्र और अपमानजनक भाषा का प्रयोग करने के कई मामले सामने आये हैं और  आते जा  रहे हैं| इस सबको देखकर यह लग रहा है कि पार्टियों के बीच में न सिर्फ आचार संहिता तोड़ने, बल्कि सार्वजनिक जीवन में मर्यादा की हर सीमा को लांघने की होड़ मची हुई है |  इन हरकतों में कमोबेश सभी पार्टियां शामिल हैं और इनकी अगुआई उनके वे वरिष्ठ नेता कर रहे हैं,जो हमेशा चुनाव में शुचिता का राग अलापते हैं | 

यह स्थिति किस हद तक पहुँच कर   बिगड़ चुकी है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि निर्वाचन आयोग को एक राष्ट्रीय पार्टी की प्रमुख और बड़े प्रांत के मुख्यमंत्री को कुछ दिनों के लिए प्रचार करने से प्रतिबंधित करना पड़ा| आयोग ने कहा है कि इनके भड़काऊ बयानों से विभिन्न समुदायों के बीच खाई और घृणा बढ़ सकती है| एक पूर्व मंत्री पर महिला प्रतिद्वंद्वी के विरुद्ध बेहद अपमानजनक टिप्पणी के लिए मुकदमा दायर किया गया है| ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं, जो आयोग के सामने लंबित हैं| प्रत्याशी बने साधु संतो की बात लेकर हुए विवाद में शंकराचार्य जैसे पीठाधीश्वर का कूदना किसी प्रजातांत्रिक पद्धति के अस्वस्थ होने की निशानी है |

मूलत: चुनाव प्रचार का उद्देश्य मतदाताओं को पार्टियां और उम्मीदवार अपने एजेंडे की खूबियों और विरोधियों के एजेंडे की खामियों से अवगत कराना है,  जिससे लोग बेहतर प्रतिनिधि और सरकार चुन सकें, परंतु यदि प्रचार व्यक्तिगत लांछन और अमर्यादित बयानों पर आधारित होगा, तो जनता के सामने राजनीतिक और वैचारिक पक्षों को कैसे रखा जा सकता है? क्या ऐसे नेताओं से देशहित में काम करने की अपेक्षा की जा सकती है? आयोग को ऐसी प्रवृत्तियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई करनी चाहिए, लेकिन मर्यादित भाषा और व्यावहारिक शुचिता की परवाह नहीं करनेवाले नेताओं के साथ मीडिया और मतदाताओं को भी निष्ठुर होना होग| 

एक सवाल हमे खुद से और राजनीतिक पार्टियों से पूछना होगा कि क्या ऐसे जनप्रतिनिधि देश की सबसे बड़ी पंचायत में भारत के भविष्य को लेकर गंभीर होंगे, जिन्हें बुनियादी लोकतांत्रिक मूल्यों से भी परहेज हो. चुनावी जीत के लिए समाज को बांटने और विरोधी पर कीचड़ उछालने का यह तरीका बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए| 

भारत में सत्तर वर्षों की अपनी यात्रा में उसका गणतंत्र उत्तरोत्तर मजबूत हुआ है, लेकिन धनबल और बाहुबल से राजनीति को मुक्त कराने का कार्य अभी अधूरा है| इस हाल में आदर्शों और मूल्यों को बचाने का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व हमारे सामने है क्योंकि हम नागरिक हैं नेता नहीं | नकारिये ऐसे लोगों को जिनकी रूचि स्वस्थ  प्रजातंत्र और निष्पक्ष चुनाव में नहीं है |कहने को मतदाताओं की तादाद और चुनावी खर्च के लिहाज से यह लोकसभा के निर्वाचन की प्रक्रिया दुनिया में सबसे बड़ी जरूर है, पर हम प्रजातांत्रिक मूल्यों के सबसे निचले पायदान पर हैं|
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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