जलियांवाला बाग : हमारे घाव ज्यों के त्यों | EDITORIAL by Rakesh Dubey

आज 13 अप्रैल है, आज ही के दिन अमृतसर के जालियांवाला बाग में सैकड़ों निहत्थे लोगों की हत्या की गई थी। यह 13 अप्रैल 1919 थी। यह घटना ब्रिटिश उपनिवेशवाद के क्रूरतम अपराधों में से एक है। औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध हमारे स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास बलिदानों की महान गाथाओं में से एक। इस घटना के साथ हमारी राष्ट्रीय स्मृति में दो शताब्दियों तक का ब्रिटिश अत्याचार और शोषण भी अंकित हैं।

कहने को आज ब्रिटेन और भारत के बीच अच्छे संबंध हैं और हमारे मन में बदले की कोई भावना दूर-दूर तक नहीं है। इसके बावजूद, जब हम जालियांवाला बाग जनसंहार के शताब्दी वर्ष पर बलिदानियों को स्मरण कर रहे हैं, तो यह बात दुःख दे रही है कि ब्रिटेन की वर्तमान सरकार द्वारा औपनिवेशिक अपराधों के लिए क्षमायाचना से इनकर किया गया है। यह दुखद और दुर्भाग्य पूर्ण है। यह इसलिए भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि क्षमायाचना की मांग भारत ने नहीं की है, बल्कि यह ब्रिटिश सांसदों का ही आग्रह है।

सच है इस क्षमायाचना और प्रायश्चित का एक मानवीय मूल्य भी हैं। इनके व्यवहार से हमारे घाव भी भरते हैं और परस्पर विश्वास भी बढ़ता। स्वयं ब्रिटिश विदेश कार्यालय के मंत्री मार्क फील्ड ने स्वीकार किया है कि भले ही भारत के साथ द्विपक्षीय संबंध भविष्य की ओर उन्मुख हैं और वे बेहतर हो रहे है, किंतु उन पर अतीत की परछाईं भी है। उन्होंने जालियांवाला बाग को लेकर भारतीय भावनाओं को भी रेखांकित किया है। यह बात पर्याप्त नहीं है, मानवीय दृष्टिकोण से यो बिलकुल नहीं।

सही मायने में ब्रिटिश मंत्री ने क्षमा के संदर्भ में 'वित्तीय पहलुओं' की निरर्थक बात भी की है। क्षमा मांगना मूल रूप से एक संवेदनात्मक व्यवहार है। वैसे ब्रिटिश सरकार बहुत पहले से ही इस घटना पर दुख प्रकट करती आयी है, पर उसने औपचारिक तौर पर कभी क्षमा नहीं मांगी है। आज भी प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने यही किया है। यहां प्रश्न मात्र भाषा और भावनाओं का ही नहीं है, बल्कि नीयत का भी है। ब्रिटेन अन्य औपनिवेशिक देशों की तरह अपने इतिहास को लेकर सहज नहीं हो सका है, न ही किसी को उससे ऐसी उम्मीद ही है।

ब्रिटेन  इतिहास में मानवता के साथ किये गये भयावह अपराधों को उचित ठहराने की प्रवृत्ति भी रखता  है| एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के देशों को आज भी दासता की बेड़ियों की जकड़ के घाव मौजूद है, इनसे छुटकारा नहीं मिला है| इन देशों में निर्धनता और पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण यूरोपीय देशों की लूट-खसोट और दमन ही है.|

साफ दिखता है कि यूरोप के कोष और संग्रहालय इन देशों की संपत्ति से आज भी भरे हैं| यह संतोष की बात है कि ब्रिटिश संसद के निचले  सदन में हुई चर्चा के बाद बहस के प्रस्तावक और सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी के सदस्य बॉब ब्लैकमैन ने कहा है कि इस जनसंहार को देश के स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जायेगा और इस पर औपचारिक ढंग से क्षमा मांगना उचित व्यवहार होगा| वे  इस घटना के शताब्दी वर्ष आयोजनों के संयोजक भारतीय मूल के सांसद और प्रतिष्ठित नागरिक हैं तथा वे ही प्रधानमंत्री थेरेसा मे के समक्ष भी क्षमा मांगने का प्रस्ताव रखेंगे| ब्रिटिश  संसद के ऊपरी सदन में १९  अप्रैल को एक विशेष कार्यक्रम भी प्रस्तावित है| इतिहास और वर्तमान की खाई को पाटने और भविष्य को संजोने के लिए आवश्यक है कि ब्रिटेन अपने अतीत के साथ सहज होने का प्रयास करे| हमारे घाव तो अब तक ज्यों के त्यों हैं |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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