भारत : सबके वोट का मूल्य अलग-अलग है | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। इसे क्या कहा जाये ? एक देश एक चुनाव( पर हर मतदाता के मत का मूल्य अलग-अलग। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में ऐसा ही है। हर लोकसभा क्षेत्र में गिरने वाले मत अलग-अलग  मूल्य का है। कहीं कुछ हजार लोग ही सांसद चुन लेते हैं, तो कहीं यह संख्या लाख पार कर जाती है।

जैसे आप लक्षदीप के मतदाता हैं तो तेलंगाना स्थित सबसे बड़े क्षेत्र मलकाजगिरि के मतदाताओं के मुकाबले आपके मत का मूल्य कम से कम 63 गुना ज्यादा है, क्योंकि लक्षदीप में जहां केवल 49922 मतदाता एक सांसद चुनकर लोकसभा में अपना एक मत पक्का कर लेते हैं, वहीं मलकाजगिरि के ३१ ८३ ३२५ मतदाताओं के पास भी लोकसभा में कुल मिलाकर एक ही मत है। मतों के मूल्य में यह असंतुलन 1952 से ही चला आ रहा है, इसे दूर करने के लिए 2009 के आम चुनाव से पहले लोकसभा क्षेत्रों का नया परिसीमन कराया गया था। उक्त परिसीमन का आधार 2001 की जनगणना से प्राप्त आंकड़े थे। जिसके फलस्वरूप असंतुलन कुछ कम तो हुआ, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं हो पाया। लक्षदीप देश का सबसे छोटा और बाहरी दिल्ली सबसे बड़ा संसदीय क्षेत्र है और दोनों के मतदाताओं के मतों के मूल्य में भारी  का अंतर है।

लोकसभा के गठन में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मतदाताओं की हिस्सेदारी १६.४९ प्रतिशत है, तो महाराष्ट्र के मतदाताओं की ९.६९ प्रतिशत। इसी क्रम में पश्चिम बंगाल के मतदाताओं की भागीदारी७.६७ , आंध्र प्रदेश व तेलंगाना के मतदाताओं की ७.६६ , बिहार के मतदाताओं की ७.६२, तमिलनाडु के मतदाताओं की६.६६ , मध्य प्रदेश के मतदाताओं की ५.८४ , कर्नाटक के मतदाताओं की ५.४९, राजस्थान के मतदाताओं की ५.२२ और गुजरात के मतदाताओं की ४.८९ प्रतिशत भागीदारी है।

कुछ राज्य के मतदाताओं का प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय औसत से कम है और एक से ज्यादा होने का अर्थ यह कि उसे राष्ट्रीय औसत से ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला हुआ २००९ से पहले लोकसभा क्षेत्रों का परिसीमन १९७०  में हुआ था। तब हर चुनाव क्षेत्र में औसतन १२.८ लाख वोटर थे। इसका अर्थ यह हुआ जो राज्य अपनी जनसंख्या के नियंत्रण में आगे रहेंगे, उनकी सीटें कम हो जाएगी। नियमों के मुताबिक किसी भी लोकसभा क्षेत्र का फैलाव दो राज्यों में नहीं हो सकता, इस कारण भी कुछ राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के लोकसभा क्षेत्र मतदाताओं की संख्या के लिहाज से काफी छोटे हैं जबकि कई अन्य बहुत बड़े। परिसीमन में एक गड़बड़ यह भी हुई कि इसका ध्यान नहीं रखा गया कि कई बार राज्यों की जनसंख्या दूसरे राज्यों से आने वाले लोगों के कारण भी बढ़ती है। मसलन, दिल्ली, महाराष्ट्र और कर्नाटक में देश के सबसे बड़े तीन महानगर हैं और उनकी जनसंख्या बढ़ती जाने का सबसे बड़ा कारण अन्य राज्यों से आने वाला जनप्रवाह ही है।

कुछ राज्यों में मतदाताओं की संख्या के अनुपात में जितनी लोकसभा सीटें होनी चाहिए, नहीं हैं। इस कारण मतों के मूल्य की समानता स्थापित नहीं हो पा रही है। प्रत्येक लोकसभा सीट के मतदाताओं की संख्या के २०१४  के राष्ट्रीय औसत १३.५ लाख को आधार बनाकर देश भर में लागू करें तो तमिलनाडु की कुल लोकसभा सीटें ३९  से घटकर ३१ हो जायेंगी, जबकि उत्तर प्रदेश की अस्सी सीटें बढ़ाकर ८८  करनी पड़ेंगी। इसी तरह महाराष्ट्र की सीटें ४८ से बढ़ाकर ५५, कर्नाटक की २५  से बढ़ाकर २८  गुजरात की २६  से बढ़ाकर२८, छत्तीसगढ़ की ११  से बढ़ाकर १२  और दिल्ली की ७ से बढ़ाकर ८, जबकि पश्चिम बंगाल की ४२  से घटाकर४०, केरल की २० से घटाकर१७, असम की १४ से घटाकर १३, जम्मू- कश्मीर की ६ से घटाकर५, हरियाणा की १० से घटाकर ९ , हिमाचल की ४ से घटाकर ३ और उत्तराखंड की ५ से घटाकर ४। पंजाब और मध्य प्रदेश की सीटें फिर भी यथावत बनी रहेंगी। देश के लोकतंत्र की अच्छी सेहत के लिए जरूरी है कि मतों के मूल्यों में यह असमानता जितनी जल्दी संभव हो, खत्म कर दिया जाये।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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