नई दिल्ली। भारत में लोक सभा के चुनाव नजदीक होने पर सारे राजनीतिक दल एक दूसरे के कपड़े उतारने को मुद्दा मान उन विषयों पर लड़-झगड़ रहे हैं। जिनसे देश का कोई भला नही होने वाला मुद्दा यह है। कि पूरे विश्व में पांचवी सबसे बड़ी व्यवस्था की ओर कदम बढ़ा रहे भारत वर्ष का बचपन आज भी भूखा और वस्त्रहीन है। इस पर कोई न तो काम कर रहा है न ही किसी की रूचि है। कुपोषण के आंकड़े जिस हकीकत को बयान कर रहे है। सिर शर्म से झुक जाता है।
कुपोषण र्द ने पांच से सात वर्ष के बच्चों को अपनी गिरफ्त में ले रखा है। लगभग २० प्रतिशत बचपन अनेक प्रकार की व्याधियों में जीवन व्यतीत करने मजबूर है। यह अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का मानना है कि दक्षिण एशिया में भारत की अर्थव्यवस्था तेजी से उभरने वाली अकेली अर्थव्यवस्था है। चमचमाते भारत के शीश पर चढ़ी चमकदार कलई को ऐसी अनेक विकृतियां उतार फेंक रही है। सन २०१८ के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में १९९ देशों की सूची में भारत को १०३ नंबर पर रखा गया है। भारत उन देशों के साथ खड़ा है, जहाँ यह समस्या गंभीर स्थिति में पहुंच चुकी है। अर्थव्यवस्था के ऊंचे ग्राफ को छूने जा रहे भारत वर्ष को कई गाँव चुनौती दे रहे है।
तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था का तमगा लटकाये भारत वर्ष में सबसे बड़ी समस्या एक बड़े वर्ग की भूख मिटाना ही है। विकास की तमाम दावों और प्रतिदावों के बीच भूख से होने वाली मौतों को न रोक पाना कहीं न कहीं योजनाकारों की असफल नीति का ही परिणाम रही है। इस पूरे मामले में कहीं-कहीं सुखद अहसास तब होता है, जब हम देश के कुछ हिस्सों में युवा वर्ग को इस अंतहीन समस्या से लड़ते भिड़ते देखते है। कहने को देश की सरकार ने ऐसे ही कार्यों को सही ढंग से करने की जवाबदारी एनजीओ के कंधों पर डाली है। विडंबना यह है कि बच्चों के नाम पर मिलने वाली बड़ी सरकारी मदद ऐसे संगठनों द्वारा स्वार्थपूर्ति का माध्यम बन चुकी है। बच्चों के हक में बन रही या चल रही अच्छी योजनाओं पर जंग लग चुका है। रेडी टू ईट फूड योजना से लेकर निशुल्क इलाज का संकल्प ऐसे ही कुछ उदाहरण हो सकते है, जिनका लाभ जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच रहा है।
बच्चों से लेकर महिलाओं की स्थिति पर नजर डाले तो संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट बड़ा ही डरावना दृश्य प्रस्तुत करती है। रिपोर्ट के अनुसार भारत वर्ष में कुपोषित बच्चों की संख्या १९.०७ करोड़ है। कुपोषण का यह आंकड़ा दुनिया में सर्वाधिक है। हमारे अपने देश में १५ वर्ष से लेकर ४९ वर्ष तक की बच्चियों एवं महिलाओं में खून की प्रतिशत ५१.४ है। ५ वर्ष से कम उम्र के ३८.४ प्रतिशत बच्चे अपनी आयु के अनुसार कम लंबाई वाले है। २१ प्रतिशत का वजन अत्यधिक कम है। भोजन की कमी के कारण होने वाली बीमारियां प्रतिवर्ष ३ हजार बच्चों को अपना ग्रॉस बना रही है। हमारे देश में पैदा होने वाला अन्न मांग के अनुसार कम नहीं है, किंतु अन्न की बर्बादी को रोका नहीं जा सका है। एक सर्वे के अनुसार देश के कुल उत्पादन का लगभग ४० प्रतिशत अन्न विभिन्न चरणों में बर्बाद हो जाता है। भूख से लड़ने और कुपोषण से दूर भगाने में हमारा तंत्र असफल रहा है, और शर्मनाक तस्वीर हमें चिढ़ाती दिख रही है। हमारे देश में २० करोड़ लोग भूखमरी के शिकार हैं । सबसे ज्यादा चौकाने वाला तथ्य यह है कि १२ वर्ष पूर्व पहली बार तैयार की गई सूची में हम जहां थे, आज भी वहीं खड़े है। फिर सरकारी विकास के आंकड़े कैसे सीना तान रहे है?
सारे राजनीतिक दल जानते है अन्न की कालाबाजारी ने जहां दलालों की तिजोरियां भरी है, वहीं गरीब दाने दाने के लिए तरसते हुए दम तोड़ने विवश होता जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भूखमरी, कुपोषण का चरम रूप है। शिशु मृत्यु दर असामान्य होने का प्रमुख कारण भी कुपोषण ही है। भारत को कुपोषण और भूखमरी से निजात दिलाने के लिए यह जरूरी है कि गरीब-अमीर के बीच की खाई पहले पाटी जाये। लोकसभा चुनाव के बहाने एक दुसरे के कपड़े उतरने की जगह इसे मुदा बनाइए | इस मुद्दे की अनदेखी देश को बर्बाद कर देगी | असली चुनावी मुद्दा तो यही होंना चाहिए |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।