वचन निभाइए, लेकिन हल भी खोजिये ! | EDITORIAL by Rakesh Dubey

वचन के मुताबिक मध्यप्रदेश में कांग्रेस सरकार या कमल नाथ सरकार ने पहला आदेश किसानों की कर्ज मुक्ति का निकाला है | वचन था सो किया | सही मायने में किसानों की हताशा और रोजगार की कमी वे आर्थिक मुद्दे हैं जिनके चलते तीन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारों को शिकस्त खानी पड़ी।

निश्चित तौर पर दोनों बातें आपस में जुड़ी हुई हैं। अगर युवाओं को कार्यालयों और फैक्टरियों में रोजगार मिलता तो भला कौन खेतों में काम करना चाहता। उनका पैसा परिवार की आय में सहयोग करने के काम आता। परंतु फैक्टरियों में रोजगार है नहीं और कार्यालयीन कामों में अंग्रेजी दां लोगों का वर्चस्व है। अगर आप अपना घर-बार छोड़कर किसी दूसरे शहर में आते हैं तो जीवन बेहद कठिन है। शहरों में गांववासी निर्माण स्थलों पर काम करते हैं। उनमें से जो प्रशिक्षित होते हैं या अनुभव हासिल कर लेते हैं वे राजगीर या फिटर, बढ़ई या बिजली का काम करने वाले बन जाते हैं। उनमें से कई अन्य अत्यंत कम वेतन पर चौकीदार या ड्राइवर का काम करते हैं। उनकी पत्नियां गांव में घर संभालती हैं या शहरों में घरेलू सहायिका के रूप में काम करती हैं। पुरुष एक कमरे में कई लोगों के साथ रहते हैं, बस किराया ज्यादा होने के कारण पैदल काम पर जाते हैं। इतनी कम कमाई में भी वे बचत करके कुछ पैसा अपने परिवार के पास भेजते हैं। उन्हें अक्सर अपने नियोक्ता से पैसे उधार लेने पड़ते हैं। शादी-ब्याह का कर्ज चुकाने या शहर में झुग्गी बनाने के लिए के लिए वे पूलिंग योजनाओं में पैसा लगाते हैं। घर बनाने का काम चरणबद्घ ढंग से होता है। पहले कच्ची दीवार की जगह ईंट की दीवार, फिर टिन की जगह पक्की छत, उसके बाद पक्का फर्श आदि। इस प्रक्रिया में एक दशक तक लग सकता है। उन्हें हर महीने कर्ज की किस्त चुकानी होती है। 



इससे पूंजी निर्माण गांवों में नहीं बल्कि शहरों में ही होता है। जो भाग्यशाली होते हैं उनके बच्चे डिप्लोमा आदि कर लेते हैं ताकि वे अपने माता-पिता से कुछ बेहतर काम कर सकें। मिसाल के तौर पर कार मैकेनिक, होटल में हाउसकीपिंग स्टाफ, डिलिवरी बॉय आदि जैसे काम। युवतियों को दुकानों में काम मिल जाता है या वे बूटीक आदि में काम करने लगती हैं। उनकी अंग्रेजी अच्छी न होने से वे अक्सर हताश रहती हैं और प्राय: अपने नियोक्ता की दया पर निर्भर रहती हैं। उनके पास कोई रोजगार सुरक्षा नहीं होती है और न ही चिकित्सा सुविधा। आधिकारिक न्यूनतम वेतन एक तरह से काल्पनिक है। इनके जीवन में तमाम कठिनाइयां हैं। ऐसे में कोई भी सरकारी नौकरी, निजी क्षेत्र की नौकरी से बेहतर ही लगती है। वहां वेतन अच्छा है और पेंशन भी मिलती है। परंतु सरकार ने काम को अनुबंध पर देना शुरू कर दिया। ये अनुबंधित कर्मचारी वर्षों तक काम करते रहते हैं। इस हकीकत में उलझे हुए आप राजनेताओं की ओर उम्मीद से देखते हैं क्योंकि वे बदलाव का वादा करते हैं। हर वर्ष एक करोड़ नए रोजगार देने का वादा किया जाता है, कहा जाता है कि नौकरी पाने के लिए किसी के पांव छूने की आवश्यकता नहीं होगी और व्यवस्था को संकटग्रस्त बनाने वाले भ्रष्ट लोगों से निपटा जाएगा। पांच वर्ष बाद हकीकत में बहुत कम बदलाव आता है। अगर अब कोई नौकरी में आरक्षण की मांग करता है और वह आपकी जाति का है तो आपका उसकी ओर झुकाव स्वाभाविक है। आपको लगता है कि इससे बदलाव आएगा। अगर कोई दल आपका कर्ज माफ करने को कहता है तो आप उसे वोट दे देते हैं। परंतु खेती का काम फिर भी मुश्किल बना रहता है। फसल की अच्छी कीमत भी दूर की कौड़ी बनी रहती है। आरक्षण से भी रोजगार में कोई खास इजाफा नहीं होता।

अधिकांश लोग निराशा का जीवन जीते हैं, परंतु युवा हार मानने को तैयार नहीं होते। इसे ही अंडरसिटी का नाम दिया गया जहां से ओवर सिटी का आराम और खुशियां एक ऐसी दूरी पर नजर आती हैं जिसे पार नहीं किया जा सकता है? सामूहिक पहचान  आपके जीवन को सार्थकता प्रदान कर सकती है इसलिए आपका राजनीतिक दुनिया की ओर झुकाव हो जाता है। वोट पाने के लिए सब्सिडी और अन्य लोकलुभावन काम करना और लोगों को खुश रखना राजनीति  की मजबूरी हो गई है । कटु सच्चाई यह है कि देश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के पास समस्याओं का कोई वास्तविक हल नहीं है। खोजिये, सब मिलकर जरूरी है। 
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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