पाखंड के पर्वत जब दरकते हैं, बिना शोर ढह जाता है मूल्यों का बाजार... Devesh Kalyani @My Opinion

देवेश कल्याणी। मन तो नहीं था इस विषय पर कुछ लिखूं। भय्यूजी की मौत के बाद खामोश रहा, कल्पेश जी की मौत के चौथे दिन तक भी सब्र रखा, लेकिन कल दोपहर से ही उद्वेलित था जब ये पता चला कि मामला पुलिस की दहलीज पर था जहां कल्पेश याग्निक ये अर्जी दे आए थे कि कोई कार्रवाई से पहले उनका पक्ष जाना लिया जाए... यानी वे जानते थे कि पुलिस को कुछ ऐसा बताया जा सकता है, जिससे शेष संसार के बीच उस कल्पेश याग्निक को क्षतिग्रस्त किया जा सकता था जो उन्होंने सालों की मेहनत से न्यूज रूम में गढ़ा था। ऐसा ही कुछ अंगुली घसीट सूचनाएं तो भय्युजी के बारे में मोबाइल-टू-मोबाइल सर्कुलेट हो रही थीं कि ज्ञान के दुकान चलाने वाले राष्ट्रसंत भयादोहन के शिकार थे....

खैर... कल्पेश या भय्यू नहीं, असल विषय है पाखंड के पर्वत की संरचना और उसका दरकना... बड़ी-बड़ी बदमाश कंपनियों से भरे सामाजिक परिवेश में बहुत कठिन हो चला है एक ऐसा आदमी खोजना, जिसे दिल नहीं आत्मा की गहराई से फालो करने का मन करे। कारण ये है कि हम हिंदुस्तानियों की परवरिश ही ऐसी होती है कि हर क्षेत्र में मनुष्य में देवता खोजते हैं। और देवता... वे तो धरती पर रहते ही कहां हैं... इसलिए आधे-पौने लोग मेकअप मे लग जाते हैं कि किसी तरह से देवता दिखें... गलीचे के नीचे कचरे और मेकअप के नीचे चेहरे को छिपा कर स्वच्छता-सुंदरता की दुकान लगाते हैं। भीड़ बढ़ने पर वह आधा-पौना मनुष्य कहीं खो जाता है। बचता है शीर्ष पर पहुंचा ऐसा व्यक्ति जो इसके सुख का स्वाद लेने के लोभ का संवरण नहीं कर सकता। और... यहीं से शुरू होता है पाखंड का पर्वत का आकार लेना। शीर्ष के सुख की लिप्सा और उसकी निरंतरता की जरूरतों के बीच एक गढ़ा हुआ व्यक्तित्व पेश किया जाता है। जिसे देवताओं जैसा बताया भी जाता है और मान भी लिया जाता है।

कल्पेश और भय्यु के रूप में जिन दो व्यक्तियों की वजह से चर्चा का संदर्भ बना है वे निश्चिय ही विलक्षण रहे हैं। उन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में जो समाज को दिया वह अतुल्य है, लेकिन वे भी भूल गए थे कि वे देवता नहीं साधारण मनुष्य है और लोग भी। अपेक्षाओं ने उनकी भूल/गलतियां/जुर्रतें करने की जमीनें छीन ली और मजबूर कर दिया कि वे शीर्ष पर वैसे रहे जैसी अपेक्षा है। लेकिन थे तो मनुष्य ही। गलतियां, भूल और जुर्रतों का पुतला... परिस्थितियां ऐसी बनीं कि अपेक्षाओं के सिंहासन पर प्रतिष्ठित देवता का सवालों से घिरा मनुष्य दिखना अवश्यंभावी हो गया, तो उसे भुगतने से आसान मौत लगी... और छोड़ गए उन लोगों के लिए सवाल जिन्होंने कभी इनसे प्रेम किया था या प्रेरणा ली थी। पाठ्य पुस्तकों में पढ़ी बाबा भारती और डाकू खड़गसिंह की कहानी के बात मुकम्मल करने के लिए जरूरी लग रही है सो जिक्र कर रहा हूं। उस कहानी में डाकू द्वारा घोड़ा छिनने के बाद बाबा कहते हैं कि किसी और को मत बताना कि तुमने जरूरतमंद बन कर घोड़ा छीना है वरना कोई किसी पर विश्वास नहीं करेगा। क्या कुछ ऐसा इन प्रकरणों में भी नहीं लगता। कितना मुश्किल होगा इनसे प्रेम करने और प्रेरणा लेने वालों के लिए कि वह फिर कोई नया देवता ढूंढ लें? दरअसल इन आत्मघातों से शीर्ष और विरोधाभास के निर्वात के बीच बना पाखंड का पर्वत ही नहीं विश्वास, आस्था और मूल्यों का बाजार भी बेआवाज ढह गया है।
लेखक श्री देवेश कल्याणी भोपाल से प्रकाशित प्रदेश टुडे के संपादक हैं। 

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