
अब सवाल यह है कि सरकारी बैंकों को ही कोई रकम राइट ऑफ क्यों करनी पड़ती है? इसी बाज़ार में निजी बैंक भी काम कर रहे हैं। वे मुनाफ़े में कैसे चल रहे हैं? कुछ तो है जो निजी बैंक सही कर रहे हैं और जो सरकारी बैंकों को सीखना होगा। निजी बैंक जब भी बैंक ऋण देते हैं तो उसके लिए अलग-अलग तरह की गारंटी ली जाती है। सरकारी बैंक इस मामले में ढील बरतते हैं। सरकार की कई योजना ऐसी होती हैं। जो गारंटी के बगैर ऋण देने की सिफारिश करती है।अक्सर ऐसे ऋण ही डूबते हैं।
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आखिर ऐसे हालात बने ही क्यों? अगर बैंक काम करने लायक ही नहीं हैं, तो आम लोग उसका भार क्यों उठाएं? बड़े नाम अब भी आसानी से ऋण ले रहे हैं जैसे अडानी समूह के ऑस्ट्रेलिया के खनन प्रोजेक्ट के लिए एसबीआई ने क़रीब छह हज़ार करोड़ रुपये का ऋण देने की बात है वह भी उस समय, जब अडानी समूह पहले ही 72 हज़ार करोड़ रुपये का ऋण है उन्हें और लोन देना तो उचित नहीं है लेकिन ऋण स्वीकृत हुआ ? प्रश्न यह है की ऐसे बैंकों के काम-काज करने के तरीक़े को जनता क्यों स्वीकार करें? बैंकों ने कर्ज़ दिया और उसे सही तरीके से सिक्योरिटाइज नहीं किया। इससे बैंक अपने पैसे को वसूल नहीं कर पाया। उसे बचाने के लिए हम फिर से टैक्स दें या पैसा दें। यह तो सरासर अनर्थ है। बैंक सिर्फ ऋण डुबाने के लिए नहीं बने हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।