क्या BANK जनता की रकम डुबाने को ही बने हैं ? | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। यह साल 2018 भारत के बैंकिग  उद्ध्योग में “दुष्काल” के रूप में दर्ज होने जा रहा है | भारतीय बैंकों का पिछले 10 सालों में सबसे ज़्यादा पैसा इस साल अर्थात 2018 में डूबा है। भारतीय बैंकों ने माना है कि इस साल मार्च तक उनका 1 लाख 44 हज़ार करोड़ रुपया डूब गया। बैंक की सेहत पर इसका क्या असर होगा ? सरकार तय करेगी, पर समाज पर इसके होने वाले प्रभाव डराने वाले हैं। आम लोगों को नए LOAN मिलने पर इसके बुरे असर के साथ ही लोक कल्याणकारी योजनाएं भी प्रभावित होंगी। सरकार किसानों को आसान किस्तों पर कर्ज़ देना चाहती है। इस कर्ज़ के लिए पैसा कहां से आएगा जबकि सरकारी बैंक अब कर्ज़ देने में सक्षम  नहीं है? भारत की अर्थव्यवस्था में लगभग 45 प्रतिशत हिस्सेदारी लघु उद्योगों की है। एक से पांच लाख रुपये की रकम के लोन पर ही ये उद्योग चलते हैं। बैंकों की खराब हालत से उन्हें यह रकम मिलना भी मुश्किल हो जाएगी ये लघु उद्योग भारत में ज़्यादा लोगों को नौकरियों पर रखते हैं। इन बैंकों से लघु उद्योगों को लोन नहीं मिलेगा तो वहाँ नौकरियां भी मिलनी बंद हो जाएंगी।

अब सवाल यह है कि सरकारी  बैंकों को ही कोई रकम राइट ऑफ क्यों करनी पड़ती है? इसी बाज़ार में निजी बैंक भी काम कर रहे हैं। वे मुनाफ़े में कैसे चल रहे हैं? कुछ तो है जो निजी बैंक सही कर रहे हैं और जो सरकारी बैंकों को सीखना होगा। निजी बैंक जब भी बैंक ऋण देते हैं तो उसके लिए अलग-अलग तरह की गारंटी ली जाती है। सरकारी बैंक इस मामले में ढील बरतते हैं। सरकार की कई योजना ऐसी होती हैं। जो गारंटी के बगैर ऋण देने की सिफारिश करती है।अक्सर ऐसे ऋण ही डूबते हैं।
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आखिर ऐसे हालात बने ही क्यों? अगर बैंक काम करने लायक ही नहीं हैं, तो आम लोग उसका भार क्यों उठाएं? बड़े नाम अब भी आसानी से ऋण ले रहे हैं जैसे अडानी समूह के ऑस्ट्रेलिया के खनन प्रोजेक्ट के लिए एसबीआई ने क़रीब छह हज़ार करोड़ रुपये का ऋण देने की बात है वह भी उस समय, जब अडानी समूह पहले ही 72 हज़ार करोड़ रुपये का ऋण है उन्हें और लोन देना तो उचित नहीं है लेकिन ऋण स्वीकृत हुआ ? प्रश्न यह है की ऐसे बैंकों के काम-काज करने के तरीक़े को जनता क्यों स्वीकार करें? बैंकों ने कर्ज़ दिया और उसे सही तरीके से सिक्योरिटाइज नहीं किया। इससे बैंक अपने पैसे को वसूल नहीं कर पाया। उसे बचाने के लिए हम फिर से टैक्स दें या पैसा दें। यह तो सरासर अनर्थ है। बैंक सिर्फ ऋण डुबाने के लिए नहीं बने हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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