जरूरत है एक देसी आर्थिक सलाहकार की | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। राहुल गाँधी व्यंग में और स्वदेशी जागरण मंच रोष में देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार के जाने पर कुछ भी कहें, अरविन्द सुब्रमनियम एक अलग तरीके की शख्सियत थे। अपनी नियुक्ति से पहले उन्होंने वित्त मंत्री अरुण जेटली के पहले बजट की आलोचना की थी। उनका कहना था कि इस बजट में रेवेन्यू के अनुमानों को काफी बढ़ाचढ़ा कर दिखाया गया है। पद संभालने के बाद भी उनका फोकस सरकार की आमदनी बढ़ाने पर रहा। हमेशा रेवेन्यू जुटाने और उसको दूसरी कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च करना उनकी नीति रही है। रघुराज रामन के इस्तीफे के बाद 16 अक्तूबर 2014 को वे इस पद पर आये थे, अब वापिस अमेरिका लौट रहे हैं। रघुराज रामन भी अमेरिका ही लौटे हैं।

सुब्रमनियम के कार्यकाल में ही 16 जून 2017 से डीजल और पेट्रोल की कीमतों की समीक्षा हर दिन होनी शुरू हुई थी। यानी अंतरराष्ट्रीय कीमतों के अनुसार घरेलू बाजार में भी हर दिन पेट्रोल डीजल की कीमतों में कमी बेशी की जाएगी। इसका फायदा ऑयल कंपनियों को मिला और उनका घाटा कम हुआ, लेकिन जनता घटते-बढ़ते दामों से परेशान रही। लेकिन सरकार की तरफ से इन कंपनियों को मिलने वाली सब्सिडी में भी कमी आई। सरकार ने इस कार्यकाल में उज्ज्वला योजना, जनधन योजना, मुद्रा योजना, कैशलेस को बढ़ावा देने जैसी कई योजनाएं शुरू की सुब्रमनियम की नीति की वजह से इन योजनाओं के लिए सरकार के पास ज्यादा धन एकत्र हुआ।

आरएसएस से सम्बद्ध स्वदेशी जागरण मंच ने कहा है कि आगामी मुख्य आर्थिक सलाहकार ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जिसका भारतीय मूल्यों व प्रकृति में विश्वास हो। स्वदेशी जागरण मंच का आरोप है कि ‘सुब्रमनियम को देश की पर्याप्त समझ नहीं थी और उन्होंने किसानों की अनदेखी की।’ मंच के सह संयोजक अश्वनी महाजन ने कहा ,‘सुब्रमनियम को भारत की समुचित जानकारी नहीं थी  वे एफडीआई पर ही केंद्रित रहे। उन्होंने हमारी अर्थव्यवस्था के सबसे महत्वपूर्ण पहलू - कृषि व किसान-की अनदेखी की|’

वैसे तो अरविंद सुब्रमनियम का कार्यकाल तीन साल का था. अक्टूबर 2017 में वो पदमुक्त होने वाले थे, लेकिन बाद में सितंबर 2017 में उन्हें एक साल का एक्सटेंशन दे दिया गया, जो इस इस साल अक्टूबर में खत्म हो रहा था। वैसे भारत जैसे देश की अर्थव्यवस्था को संभालने का कोई फार्मूला नहीं हो सकता। देश की रीढ़ कृषि है। अमेरिका से आने-जाने वाले अर्थ शास्त्री किसानों की आत्म हत्या और सरकार की नीति के बीच कोई तालमेल नहीं बिठा पाते हैं। यह सिद्ध भी हो चुका है। देश एक अमेरिका से लौटे अर्थशास्त्री को प्रधानमंत्री तक बना चुका है। सवाल यह है कि हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में अर्थ नीति कब बना सकेंगे और देश के मूल मूल्यों को समझने वाला आर्थिक सलाहकार कभी खोज सकेंगे ?
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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