जरूरी है, सरकार समझे तेल का खेल | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारत की अर्थ व्यवस्था के एक बड़े कारक मॉनसून का स्थान एक अन्य माध्यम धीरे-धीरे लेता जा रहा  है। एक समय भारतीय नीति निर्माताओं ने स्वीकारा था कि वे अल नीनो को नियंत्रित नहीं कर सकते। मौजूदा नीतिकारों को स्वीकार करना होगा कि वे तेल की कीमतों और ओपेक को नियंत्रित नहीं कर सकते। वैश्विक बाजार में कच्चे तेल की कीमत ही भारत की राजकोषीय स्थिति और राजनेताओं की प्रतिष्ठा को बिगाडऩे का काम कर रही है।  अर्थव्यवस्था में लागत पर इसका असर होता है जो महंगाई बढ़ाता है। सरकार की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगता है।   

अनुमानों के अनुसार इस वृद्धि से सरकार को सालाना 25 खरब रुपये का राजस्व बचा है। अब ऐसा लगता है कि स्थितियां खराब हो रही हैं। वैश्विक बाजार में प्रति बैरल कच्चे तेल का मूल्य करीब 80 डॉलर है। भारत में विदेशी मुद्रा का पर्याप्त भंडार है लेकिन बाहरी खाते के मोर्चे पर कमजोरी नजर आ रही है। विनिमय दर डॉलर के मुकाबले 70 रुपये तक पहुंच गई है। कुछ संकेतक ऐसे भी हैं कि वृहद वित्तीय आवक बीते कुछ वक्त में कमजोर पड़ी है। ऐसा भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर बने अनिश्चितता के माहौल के चलते है। माना यह भी जा रहा है कि विकसित देशों में ब्याज दरें बढ़ेंगी।

यह कहना भी गलत नहीं होगा कि सरकार ने अच्छे समय का सही उपयोग नहीं किया। तेल कीमतों के कम रहते उसे घाटे को तेजी से कम करना चाहिए था। इसके बजाय उसने वेतन भत्ते और पेंशन में बढ़ोतरी कर दी। सरकारी उधारी में भी इजाफा हुआ यानी बॉन्ड प्रतिफल भी तेजी से बढ़ा। अब यह 8 प्रतिशत के खतरनाक स्तर पर है।  संप्रग-2 के उच्च लागत वाले समय को चेतावनी के रूप में लिया जाना चाहिए था। 1960 के दशक में अकाल ने त्रासदी मचाई थी। जिस तरह उन वर्षों को ध्यान में रखकर देश को सूखे से बचाने की कवायद की गई, वैसे ही हमें कच्चे तेल पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए था कि उसकी कीमतों का कम से कम असर हो। ऐसा नहीं हुआ। 

भारत ऊर्जा के लिए विदेशों पर निर्भर है तो उसे खुद को उपयोगी बनाना चाहिए, परंतु उसे शायद लगा कि वह घरेलू मांग से ही लाभ कमा सकता है। यह खराब नीति है क्योंकि हमारे पास तेल है ही नहीं। हम कभी इस मामले में दुनिया से अलग नहीं हो सकते। हमें हमेशा वैश्विक तेल की जरूरत होगी। दुनिया के साथ जुड़ाव आवश्यक है क्योंकि बिना उसके हम कभी स्वायत्त नहीं रह सकते। जब कच्चा तेल महंगा हो तो हमारे निर्यात की सापेक्षिक प्रतिस्पर्धी क्षमता को स्वचालित व्यवस्था के रूप में काम करना चाहिए। इससे मूल्य वृद्घि अर्थव्यवस्था पर सीमित असर डालेगी। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शायद कच्चे तेल की कीमतों के राजनीतिक प्रभाव को नीतिगत बदलाव से कम किया जा सकता है। राजकोषीय घाटे और व्यय के पहलुओं की बात करें तो उन पहलुओं को सीमित करना चाहिए या खत्म किया जाना चाहिए जो तेल की कीमतों से सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं। दुख की बात है कि हम अब तक ऐसा नहीं कर सके हैं। खुदरा तेल कीमतें नियंत्रणमुक्त हैं लेकिन वे राजनीति के दायरे से बाहर नहीं हैं। अब तक घाटे का जो बोझ पड़ा है उसका आकलन तक नहीं किया जा सका है। आने वाले समय में इसके और भी प्रभाव नजर आएंगे। पारदर्शी मूल्य निर्धारण अत्यंत आवश्यक है। यह शायद तब तक संभव नहीं होगा जब तक कि बड़ी तेल कंपनियों को सरकारी नियंत्रण से बाहर नहीं किया जाएगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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