
क्या सही है क्या गलत अजीब भ्रम फैला हुआ है। सरकार और आरबीआई ने इसे लेकर जो प्रतिक्रिया दी है वह संतोषजनक नहीं है। एक ओर, कहा गया कि नकदी की मांग में इजाफा हुआ जिससे इसमें कमी आई जबकि दूसरी ओर उसी वक्तव्य में कहा गया कि नकदी की जरूरत से ज्यादा आपूर्ति है। दोनों बातें सच नहीं हो सकतीं। दो बातें स्पष्ट हैं। पहली, नोटबंदी ने देश की मौद्रिक स्थिरता पर व्यापक असर डाला। दूसरा, इस सरकार और आरबीआई ने दिखाया है कि वे वृहद अर्थव्यवस्था का बेहतर नेतृत्व करने में नाकाम रहे हैं। अगर मांग में बढ़ोतरी हुई तो इसकी क्या वजह रही होगी?,इसके लिए अस्वाभाविक निकासी को एक जिम्मेदार कारण हो सकता हैं।
जैसे, कर्नाटक विधानसभा चुनाव, किसानों की जरूरत शादी ब्याह आदि। ऐसे कारकों का मिश्रण अक्षमता के आरोपों के खिलाफ अच्छा बचाव साबित हो सकता है। वैसे चुनाव, त्योहार और बुआई के मौसम का अनुमान लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है। साथ ही विपक्ष के इस दावे पर भी गौर करना होगा कि बैंकों में अविश्वास बढ़ रहा है। एक के बाद एक धोखाधड़ी के मामले सामने आने से और सरकार के राजकोषीय निस्तारण और जमा बीमा (एफआरडीआई) विधेयक के बारे में सामने आई जानकारियों ने इसमें मदद की। यह धारणा बनी कि यह विधेयक जमाकर्ताओं के पैसे की सुरक्षा करने में विफल है।
वर्ष २०१७ -१८ में जमा की वृद्धि दर बीते ५४ वर्षों में सबसे अधिक धीमी रही। इसके लिए एफआरडीआई विधेयक जवाबदेह है। अखिल भारतीय बैंक अधिकारी महासंघ ने भी यही राय प्रकट की थी। अगर ये आशंकाएं सही हैं तो दोष एक बार फिर सरकार पर जाता है। ऐसे में उसे नकदी की जमाखोरी का अंदाजा लगा लेना चाहिए था। नोटबंदी ने देश की मौद्रिक स्थिरता को गहरा नुकसान पहुंचाया। अभी भी बहुत कम नकदी प्रचलन में है। जो नकदी है भी उसमें भी उच्च मूल्य वर्ग और कम मूल्य की मुद्रा में सुसंगतता नहीं है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।