
2016 में सुप्रीम कोर्ट की जिस बेंच ने सिनेमा हॉल में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान को अनिवार्य किया था, उसकी अगुआई भी जस्टिस दीपक मिश्रा ही कर रहे थे। हालांकि तब वे सुप्रीम कोर्ट के एक जज थे, चीफ जस्टिस नहीं। ताजा फैसला भारतीय न्यायपालिका के एक खूबसूरत पहलू के रूप में दर्ज हुआ है, जब देश के मुख्य न्यायाधीश ने तकरीबन एक साल के अंदर अपने ही दिए फैसले पर पुनर्विचार करते हुए उसे बदल दिया है।
पिछले फैसले का आधार अदालत की इस उम्मीद को बनाया गया था कि इससे देशभक्ति और राष्ट्रवाद की भावनाओं को मजबूती मिलेगी। मगर, व्यवहार में इससे अनेक तरह की जटिलताएं पैदा होने लगीं, कई जगह उसका खुलकर विरोध भी हुआ। किसी लाचारी या मजबूरी की वजह से राष्ट्रगान के वक्त खड़ा न होने या सही मुद्रा में खड़ा न हो पाने की आड़ में यह भी हुआ जिससे यह संदेह बनने लगा कि वह व्यक्ति राष्ट्रगान का अपमान कर रहा है। इससे कई जगह कानून व्यवस्था की समस्याएं भी पैदा हुईं। इन सबसे अलग यह भी महसूस किया गया कि देशभक्ति दिल के भीतर महसूस की जाने वाली भावना है।
उसका दिखावा करना या दिखावे के लिए लोगों को मजबूर करना कोई अच्छी बात नहीं है। इसके अलावा लोकतंत्र की असली ताकत नागरिकों को आचार-व्यवहार की स्वतंत्रता देने में है, उनके आचरण को कायदे-कानून से जकड़ने में नहीं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने यह भी साफ कर दिया है कि उसके इस अंतरिम आदेश के मुताबिक सिनेमाहॉल मालिकों को जरूर यह छूट मिली है कि वे चाहें तो राष्ट्रगान बजाएं और चाहें तो न बजाएं, लेकिन लोगों को कोई छूट नहीं मिली है। अगर राष्ट्रगान बजेगा तो सिनेमा हॉल में मौजूद सभी लोगों को उसके सम्मान में खडे होना ही होगा। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के ताजा रुख ने एक अप्रिय अध्याय का समापन किया है और इसका स्वागत होना चाहिए। अगर आप भारत के नागरिक है तो राष्ट्रगान का सम्मान कीजिये।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।