खाने की बर्बादी और हम भारतीय | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। हाल ही में अनाज, फल, सब्जियां, मछली और पशुधन उत्पाद जैसे 45 महत्त्वपूर्ण खाद्य उत्पादों के उत्पादन के बाद नुकसान को लेकर पूरे देश में एक सर्वेक्षण किया गया है। इसमें कहा गया है कि हर साल देश में करीब 6.5 करोड़ टन खाद्य पदार्थ बरबाद होते हैं, जिनकी कीमत 2014 की कीमतों पर करीब 92651 करोड़ रुपये है। यह अध्ययन कटाई के बाद की इंजीनियरिंग एवं तकनीक पर अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना के तहत किया गया है। इसमें पाया गया है कि सबसे ज्यादा बरबादी सब्जियों और फलों में होती है, जो कुल उत्पादन का 15.88 प्रतिशत तक होता है। सबसे कम बरबादी दूध की होती है, जो करीब 0.9 प्रतिशत है। समुद्री मत्स्य उत्पाद 10.5 प्रतिशत तक खराब हो जाते हैं। 

खाद्य की यह बरबादी किसान के खेत से शुरू होती है और उपभोक्ताओं के पास पहुंचने तक जारी रहती है, जिसे आमतौर पर फसल की कटाई के बाद की बरबादी कहा जाता है। हालांकि खाद्य की बरबादी यहीं खत्म नहीं होती है। बड़ी मात्रा में खाद्य पकाए जाने के बाद भी बरबाद होता है। फसल की बरबादी में कमी लाने के लिए भंडारण, परिवहन, विपणन एवं प्रसंस्करण जैसी उत्पादन के बाद की मूल्य शृंखला के विस्तार की बात कही जाती है, लेकिन आम तौर पर पके हुए खाने की बरबादी की अनदेखी की जाती है। 

तैयार खाने की बरबादी को लेकर ऐसा कोई आधिकारिक आकलन नहीं है, इसलिए इसका सटीक अनुमान लगाना बड़ा मुश्किल है। हालांकि जानकारों का कहना है कि यह नुकसान कीमत के लिहाज से कच्चे फसली उत्पादन की तुलना में ज्यादा हो सकता है। पके हुए खाद्य का सबसे ज्यादा नुकसान शादियों और पार्टियों में होता है। इसके बाद ज्यादा बरबादी होटलों और रेस्टोरेंटों में होती है। रोचक बात यह है कि बौद्धिक लोगों की सभाओं, कार्यशालाओं और सेमिनारों में भी बड़ी मात्रा में तैयार खाना बरबाद होता है। भारत में उससे ज्यादा खाद्य बरबाद होता है, जिनता कुछ देशों में उत्पादित होता है। 

गंभीर बात यह है कि ये छोटे मसले नजर आते हैं, लेकिन नतीजों के हिसाब से बड़े हैं। आमतौर पर इन मसलों पर इस समय चल रहे कटाई के बाद के खाद्य प्रबंधन कार्यक्रमों में ध्यान नहीं दिया जाता है। वर्तमान योजनाओं में से बहुत सी खेत से थाली तक खाद्य की प्रत्येक चरण की यात्रा के वैज्ञानिक प्रबंधन के जरिये बरबादी को कम करने के बजाय प्रसंस्करण के जरिये मूल्य संवर्धन पर केंद्रित हैं। इसलिए इस मसले के समाधान के लिए विशेष जागरूकता और तकनीक हस्तांतरण अभियान चलाने की जरूरत है। 

इसी तरह तैयार खाने की बरबादी रोकने के लिए संगठित कार्रवाई जरूरी है। यह खाना आसानी से कुपोषितों और भूखों को खिलाया जा सकता है। इस क्षेत्र में निजी कंपनियां और औद्योगिक घराने अपनी कंपनी सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) के तहत एक उपयोगी भूमिका निभा सकते हैं। सरकार उन्हें कर और अन्य लाभ देकर प्रोत्साहित कर सकती है। वे सामाजिक कार्यक्रमों से अतिरिक्त भोजन एकत्रित कर इसे अनाथालयों, रात्रि विश्रामगृह आदि को मुहैया करा सकते हैं। 
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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