आंतरिक लोकतंत्र का एक और तमाशा | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। इसे भारतीय लोकतंत्र का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि देश के दो बड़े राजनीतिक दलों में आंतरिक प्रजातन्त्र शून्य होता जा रहा है। जिस तरह भाजपा में नरेंद्र मोदी और फिर अमित शाह का आगमन का पूर्वानुमान सारे देश को था। उसी तरह इस बार सबको पता है कि राहुल गाँधी कांग्रेस के अगले अध्यक्ष होंगे। आज कांग्रेस में राहुल की सत्ता को चुनौती देने वाला कोई नहीं है। सोनिया गांधी 1998 से अध्यक्ष बनी हुई हैं। वर्ष 2000 सोनिया गाँधी को जितेंद्र प्रसाद ने चुनौती दी थी जिनकी बुरी तरह हार हुई, पार्टी से दूरी बनी सो अलग। उसके बाद से कांग्रेस के भीतर शायद ही किसी ने नेहरू-गांधी परिवार को चुनौती देने के बारे में सोचा हो। इधर-उधर बातें करने वाले मणि शंकर अय्यर से भी किसी को कोई उम्मीद नही है। लोकतंत्र में ये परिदृश्य अच्छे नही कहे जा सकते।

राहुल गाँधी की ताजपोशी की घोषणा को पूरा प्रजातांत्रिक अनुष्ठान बनाने का ताना-बना कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में बुना गया और कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव कार्यक्रम घोषित किया गया। अध्यक्ष के चुनाव के लिए 1 दिसंबर को अधिसूचना जारी होगी। 4 दिसंबर को नामांकन होगा और 5 को नामांकन पत्रों की छंटनी होगी। 11 दिसंबर तक नामांकन पत्र वापस लिए जा सकेंगे और १16 को मतदान होगा। मतगणना 19 दिसंबर को होगी, और इसी दिन अध्यक्ष के नाम का ऐलान होगा। 

उम्मीद है राहुल गांधी के अलावा कोई और नामांकन करने की हिमाकत नहीं करता, तो नामांकन वापसी की आखिरी तारीख यानी 11 दिसंबर को ही उनके अध्यक्ष बनने की घोषणा कर दी जाएगी। अब सवाल यह है कि यह सब तामझाम करने की जरूरत क्या थी? सिर्फ मेरी कमीज़ उसकी कमीज़ से सफेद है, से जयादा कुछ भी नहीं।

दूसरे राजनीतिक दल भाजपा की बात ही छोड़ दें। कांग्रेस में तो आजादी के पहले अपने भीतर लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर दृढ़तापूर्वक अमल करने की एक प्रक्रिया थी। तब एक आदर्श प्रस्तुत हुआ था, एक से एक बड़े नेताओं की उपस्थिति के बावजूद कोई नया नेता भी प्रतिनिधियों के मत की ताकत से अध्यक्ष बन सकता था, और सभी उसे स्वीकारते थे। जबसे पार्टी और सरकार का नेतृत्व एक ही व्यक्ति के पास केंद्रित हुआ और उसे राज्यों के पदाधिकारी चुनने का अधिकार भी मिल गया तो पार्टी में व्यक्ति पूजा की प्रवृत्ति शुरू हो गई। 

आज कांग्रेस एक परिवार विशेष के जेबी दल में बदल गई है। राहुल गांधी जब राजनीति में आए तो उन्होंने जमीनी स्तर पर लोकतंत्र लाने की कोशिश की थी, पर उनके कदम कमजोर पड़ गए। क्या अध्यक्ष बनने के बाद वे कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र लाने के लिए कुछ गंभीर प्रयास करेंगे?
यह विडंबना है कि भारतीय लोकतंत्र की वाहक बने इन राजनीतिक दलों भीतर आंतरिक लोकतंत्र का नितांत अभाव है। इन दलों के संगठनात्मक चुनाव को लेकर चुनाव आयोग तक को हस्तक्षेप करना पड़ता है |ये दल पूरी बेशर्मी से  बार-बार आयोग से समय मांगते है। अगर आयोग ने 31 दिसंबर 2017 की डेडलाइन तय न की होती तो ये चुनाव और टलते। अनेक कारणों से कोई देश व्यापी नई राजनीतिक शक्ति उभर नहीं सकी है, लोकतंत्र के बचाव लिए इस दिशा में हमें सोचना होगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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