मजदूरों के हक का 29000 करोड़ अफसरों ने एशोआराम पर खर्च कर दिया

नई दिल्ली। देश के लिए थोड़ा अतिरिक्त योगदान देने के लिए कोई भी तैयार हो जाता है। बात यदि देश के बेघर और निर्धन मजदूरों की हो तो कोई भी मना नहीं करेगा। सरकार ने इन्हीं मजदूरों के नाम पर सेस (विशेष उद्देश्य के लिए लगाया जाने वाला टैक्स) लगाया। लोगों ने बिना आपत्ति चुकाया और 29000 करोड़ रुपए जमा भी हुए परंतु सरकार ने मजदूरों के हित में 10% हिस्सा भी खर्च नहीं किया। सारा पैसा अपने ऐशोआराम की चीजें खरीदने में लगा दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में नाराजगी जाहिर की है। मजेदार तो यह है कि सरकार ने यह प्लान ही नहीं किया था कि जमा किया गया पैसा मजदूरों के हित में कैसे खर्च किया जाएगा। 

बात 29 हजार करोड़ रुपये के फंड की है जो कि निर्माण क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूरों पर खर्च होनी थी, पर वो लैपटॉप और वॉशिंग मशीन खरीदने में खर्च कर डाली गई। इसका खुलासा कैग ने किया है। पैसे का 10% हिस्सा भी मजदूरों के हित में खर्च नहीं किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हैरानी भी जताई और राज्य सरकारों व लेबर बोर्ड्स को फटकार भी लगाई है। बता दें कि यह पैसा सरकारों ने सेस लगाकर वसूला था। वैसे ही जैसे साफ-सफाई वगैरह के लिए सेस वसूला जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने 10 नवंबर तक जवाब मांगा है।

जस्टिस मदन बी लोकुर और दीपक गुप्ता की खंडपीठ ने मामले को बेहद चौंकाने और नाराज करने वाला बताते हुए केंद्रीय श्रम सचिव को नोटिस भेजा है। उनको 10 नवंबर से पहले न्यायालय में पेश होने का निर्देश दिया गया है। साथ ही यह बताने को कहा गया है कि यह अधिनियम कैसे लागू किया और क्यों इसका दुरुपयोग हुआ।

कैसे सामने आया मामला
एक नेशनल कैंपेन कमेटी फॉर सेंट्रल लेजिस्लेशन ऑन कंस्ट्रक्शन लेबर नाम का एक गैर सरकारी संगठन यानी एनजीओ है। इसने एक जनहित याचिका दायर करके आरोप लगाया था कि मजदूरों के लिए रियल एस्टेट कंपनियों से सेस लगाकर जो पैसा इकट्ठा हुआ है, उसका सही इस्तेमाल नहीं हो रहा है। एनजीओ ने इसके पीछे एक मजबूत कारण भी दिया था। उसका कहना था कि जिन मजदूरों को फायदा देना है, उनकी पहचान करने का कोई सिस्टम तक तो बना नहीं है। तो पैसा क्या खाक खर्च हो पाएगा।

2015 में 26000 करोड़ जीम लिए थे
न्यायालय ने 2015 में भी इस मामले में नाराजगी जताई थी। उस वक्त ये फंड 26,000 करोड़ रुपये का था। तब तो इसे खर्च ही नहीं किया गया था। इसके बाद कोर्ट ने कॉम्पट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल (कैग) से इस मद में इकट्ठा हुई राशि का हिसाब किताब लगाकर देने को कहा था तो कैग ने जब हिसाब किताब लगाया तो ये मामला सामने आया। कैग ने अब ऐफिडेविट लगाकर सुप्रीम कोर्ट के सामने इसका चिट्ठा खोला है। पाया गया कि फंड का पैसा राज्य सरकारों और लेबर वेलफेयर बोर्ड्स ने दूसरे कामों में खर्च कर डाला। काफी पैसा एडमिनिस्ट्रेटिव कामकाज में भी खर्च किया गया। जबकि नियम में सिर्फ 5% खर्च करने की इजाजत थी। बाकी लैपटॉप और वॉशिंग मशीनें तो खरीदी ही गई हैं। मजदूरों का ऐसा वेलफेयर शायद ही देखने को मिले।

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