गुजरात के कारण घरेलू नौकरों की सुध

राकेश दुबे@प्रतिदिन। गुजरात की गिनती देश के सम्पन्न राज्यों में कानूनन तो नहीं सामाजिक रूप से अवश्य की जाती है। घरेलू काम करने के लिए सहायिका या सहायक रखने के मामले में भी गुजरात की गिनती प्रथम 3 राज्यों में होती है। गुजरात सहित सम्पूर्ण देश में इन असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वालों तादाद बहुत बड़ी और दशा बेहद दयनीय है। गुजरात चुनाव से पहले भारत सरकार को घरेलू नौकरों की याद आई है, वैसे तो इसे एक सकारात्क पहल मानना चाहिए। हालांकि अभी एक ठीकठाक कानून बनने में ढेरों अगर-मगर हैं।

भारी दवाब के बाद श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने घरेलू कामगारों के लिए राष्ट्रीय नीति का मसविदा तैयार किया है। लगता है गुजरात चुनाव के पहले इसे कानूनी दर्जा मिलेगा। फिलहाल जो प्रारूप तैयार हुआ है अगर उसे अमली जामा पहनाया जाता है तो घरेलू सहायकों को हर वे अधिकार हासिल होंगे, जो दूसरे श्रमिकों को मिले हुए हैं। मसलन उनका न्यूनतम वेतन तय किया जाएगा, वे संगठन बना सकेंगे या किसी दूसरे संगठन से संबद्ध हो सकेंगे। उनके कौशल विकास और सामाजिक सुरक्षा की गारंटी दी जाएगी। घरेलू मजदूरों के अवकाश और काम के घंटे को भी परिभाषित किया जाएगा और उनके लिए शिकायत निवारण और विवादों के समाधान की भी व्यवस्था होगी।

लेकिन इस सबकी जिम्मेदारी केंद ने राज्यों के पाले में डाली है। इस मसविदे में घरेलू नौकर  राज्य व्यवस्था के तहत या जिले के श्रम विभाग में संस्थागत नौकर के रूप में खुद को पंजीकृत करा सकेंगे। इसमें नियुक्त एजेंसियों के नियमन का भी प्रावधान किया गया है। फिलहाल सरकार ने एक परिपत्र जारी कर इस पर सुझाव आमंत्रित किए हैं, जिसे 16 नवंबर के बाद किसी ठोस रूप में परिवर्तित किया जाएगा। कुछ राज्यों ने जरूर इस मामले में कानून बनाए हैं, लेकिन उन्हें भी लागू कराना टेढ़ी खीर है। भट्ठा मजदूरों की ही तरह घरेलू नौकरों की मुश्किलें बहुत ज्यादा हैं। वे ठेकेदारों और बिचौलियों से लेकर अपने नियोक्ताओं-मालिकों की चक्की में पिसते रहते हैं। सरकारें न उन्हें कोई न्याय दिला पाती हैं और न कभी उनके बारे में ज्यादा सोचती हैं। देश भर में घरेलू कामगारों, जिनमें महिलाओं की भी बड़ी तादाद है, का कोई व्यवस्थित आंकड़ा सरकार के पास उपलब्ध नहीं है। 

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के एक पुराने आंकड़े के मुताबिक इनकी कुल संख्या बयालीस लाख है। साफ लगता है कि यह संख्या वास्तविकता से काफी कम है। यह भी एक विडंबना है कि सरकार के पास इस बारे में सिर्फ इसलिए कोई निश्चित जानकारी नहीं है कि यह तबका समाज के उपेक्षित हिस्से से आता है। इनकी कोई आवाज नहीं है और न ही इनके पास कोई संगठन है। उनके काम के घंटे और मेहनताना भी उनके मालिक ही तय करते हैं। कुल मिलाकर उनकी जिंदगी अंतहीन शोषण की दास्तान ही होती है।

गुजरात के चुनाव में इसे एक कल्याणकारी कदम की तरह घोषित किये जाने की योजना है। इसका सीधा तो नहीं अप्रत्यक्ष लाभ और नुकसान हैं। सारे राज्य केंद्र के इस मसविदे से सहमत होते हैं या नहीं, एक सवाल है और इसका जवाब जल्द आना चाहिए। ये तो आम मजदूर से ज्यादा काम करते हैं, इनके काम के घंटे, परिस्थितियाँ, और मजदूरी का कहीं कोई नियमन नहीं है। इंसानी नजरिये से सोचना चाहिए, राजनीति से हटकर।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए
आप हमें ट्विटर और फ़ेसबुक पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं।

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Accept !