
शंकर सिंह वाघेला के साथ कुछ विधायक कांग्रेस से पहले विदा ले चुके हैं। अब इस चुनाव में बंगलुरु से लौट रहे विधायकों के मत के प्रति भी कांग्रेस पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। “नोटा” के मुद्दे पर कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट में मात खा चुकी है। आश्चर्य इस बात का है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी को इस बात की जानकारी ही नहीं थी कि नोटा का इस्तेमाल राज्य सभा के चुनाव में पिछले दो सालों से होता रहा है। शीर्ष अदालत ने भी कांग्रेस की ओर से पैरवी करने वाले वकीलों से यह जानना चाहा कि जब जनवरी, 2014 में नोटा का विकल्प राज्य सभा के चुनाव में लागू करने से संबंधित अधिसूचना चुनाव आयोग ने जारी की थी, तब आपने चुनौती क्यों नहीं दी? हालांकि शीर्ष अदालत राज्य सभा चुनाव में नोटा के विकल्प के संवैधानिक मुद्दे पर विचार करने के लिए राजी हो गई। इस बात से तो सहमत हुआ जा सकता है कि अप्रत्यक्ष चुनाव में नोटा के विकल्प के इस्तेमाल की कोई सार्थकता नहीं है लेकिन चुनाव आयोग की निष्पक्षता और स्वायत्तता पर सवाल उठाने का समर्थन नहीं किया जा सकता। चुनाव आयोग संवैधानिक संस्था है। उसे कोई सरकार अपनी मर्जी के मुताबिक हांक नहीं सकती है।
ये सारे गणित बताते है कि “बाबू भाई” के मामले में कांग्रेस का गणित फेल होता दिखता है। कारण साफ़ है कांग्रेस के नेताओं का होमवर्क का कमजोर होना। “ बाबूभाई” ने दिल्ली दरबार में अपने प्रभावशाली दिनों में गुजरात के विधायकों को सम्मान की दृष्टि से कभी नहीं देखा। उन्होंने इन विधायकों से एक निरंकुश शासक की तरह बर्ताव किया है। कांग्रेस के दबाव में भले ही विधायक वोट दें दे, पर ये वोट श्रद्धा और सम्मान का नही होगा। अभी तो बाबू भाई के चुनाव में विघ्न ही विघ्न नजर आते हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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