किसानों आंदोलन: ये बेचारगी है जो अब दरिंदिगी बनकर सड़कों पर पसर रही है

आनंद पांडे। प्रदेश के अन्न्दाता गुस्से में हैं। गुस्सा कई दिनों का..हताशा कई सालों की..बेचारगी कई दशकों की। खून को पसीना बनाकर धरती को सींचने के बाद भी अगर फसल का सही दाम न मिले तो सड़क पर उतरना लाजिमी ही है। यही वजह है कि बेचारगी अब दरिंदिगी बनकर सड़कों पर पसर रही है। इस सबके जिम्मेदार हम हैं। ऐसा नहीं कि हमें किसानों की इस परेशानी का सबब नहीं था। सबब था...तभी तो प्रदेश सरकार सन 2010 से कृषि को फायदे का धंधा बनाने का जुमला उछाल रही है। अब सरकार जो कह रही है उसका हकीकत में किसानों को कितना फायदा मिल पा रहा है...ये बहस और समीक्षा का विषय है।

हालांकि सरकार के आंकड़े बता रहे हैं कि पिछले कुछ सालों में प्रदेश में खेती का रकबा बढ़ा है...सिंचाई की क्षमता भी बढ़ी है...जिलों में मिट्टी की जांच कर उसके कार्ड भी बनाए जा रहे हैं...किसानों का अनुदान सीधे उनके खाते में जमा किया जा रहा है....और कागजों पर वो तमाम टोटके आजमाए जा रहे हैं, जिनसे किसानों की सेहत सुधरती है।

टोटकों में कोई कमी न रह जाए सो बाकायदा कृषि कैबिनेट भी करवाई जा रही है और कृषि बजट भी अलग से पेश किया जा रहा है। शायद इन्हीं सब वजहों से प्रदेश को लगातार पांचवीं बार कृषि कर्मण अवॉर्ड भी मिला है लेकिन इस सबके बावजूद प्रदेश के किसानों का सड़कों पर उतर जाना साफ बताता है कि खेती-किसानी की सेहत सिर्फ और सिर्फ सरकार की फाइलों में ही सुधर रही है, हकीकत में नहीं।

यहां सरकार से पूछा जा सकता है कि क्या सरकार ने प्रदेश के किसानों की फसल दूसरे राज्यों में बिकवाने के लिए कोई पुख्ता और कारगर इंतजाम किए हैं ? क्या प्रदेश में पर्याप्त संख्या में कोल्ड स्टोरेज हैं? पिछले कुछ सालों में प्रदेश में कितने फूड प्रोसेसिंग प्लांट लगाए गए हैं ?

यहां सरकार से ये भी पूछा जा सकता है कि आलू-प्याज या दूसरी फसलों को, सही कीमत न मिल पाने की वजह से सड़क पर फेंक देने की छुट-पुट खबरें तो प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों से पिछले कई सालों से आ रही हैं, ऐसे में उसने कागजी कसरत के सिवाए क्या किया?

हमें किसानों को कोसने से पहले उसकी दुश्वारियों को समझना होगा। फसल बोने के पहले आमतौर पर उसे बीज और फिर खाद के लिए कर्ज लेना पड़ता है...और कई दफा खाद-बीज अमानक या नकली निकल जाता है। भाग्य और मौसम ने साथ दिया और फसल अच्छी हो गई तो ठीक, वर्ना जब फसल बीमा के नाम पर 20-25 स्र्पए मिलते हैं तो उनके दिल पर क्या गुजरती है ये कोई किसान परिवार से जुड़ा शख्स ही समझ सकता है।

इस सबसे पार पाते हुए आखिर में फसल लागत मूल्य से ज्यादा पर बिक जाएगी, इस बात की गारंटी कोई नहीं ले सकता है। ऐसे में आखिर किसान करे तो क्या करे? हमें समझना होगा कि असल में सब्जी या दूध को सड़कों पर फेंकना तो किसान भी नहीं चाहता है। लेकिन अपने अनुभवों को देखते हुए उसे लगता है कि जब तक वो सरकार की आंख में उंगली नहीं डालेगा, तब तक उसकी कोई सुनवाई नहीं होगी।

उसे लगता है कि सरकार के साथ ही समाज की संवेदनशीलता भी मर गई है...इसीलिए वो अपने हंगामे को जायज ठहराता है। मध्यप्रदेश जैसे राज्य में ये घटनाएंं इसलिए भी ज्यादा चौंकाती हैं, क्योंकि यहां मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद किसान हैं। ऐसे में किसानों की परेशानियों को उनसे ज्यादा शायद ही कोई दूसरा समझ पाता होगा।

तो क्या अब ये समझा जाए कि इस तरह हिंसा...हंगामा करना ही एकमात्र विकल्प है? नहीं, कतई नहीं। किसान...पूरे समाज, प्रशासन और सरकार...सबका ध्यान अपनी ओर खींचने में कामयाब हो चुके हैं। अब वो अगर अपने आंदोलन को खीचेंगे तो उन्हें अपने प्रति आम आदमी की सहानुभूति खोनी पड़ेगी। उन्हें समझना होगा कि इस आंदोलन से हर परिवार परेशान हो रहा है...खासकर छोटे बच्चे, बुजुर्ग और बीमार व्यक्ति जिनके लिए दूध विलासिता की चीज नहीं, जरूरत है...अमृत के समान है।

इसमें शायद ही किसी को गुरेज होगा कि किसानों की पीड़ा सबकी पीड़ा है। उनका दर्द सबका दर्द है। उनसे सबको हमदर्दी है। वैसे भी ये कोई ऐसा मुद्दा तो है नहीं कि सरकार कल से एलान कर दे कि अब फलां सब्जी इस रेट से और फलां सब्जी इस रेट से बिकेगी। इसके लिए तो उन्हें बातचीत का रास्ता अख्तियार करना ही पड़ेगा। इधर, सरकार को भी किसानों का भरोसा जीतना होगा और हालात सुधारने के लिए पूरे मनोयोग से कोशिश करनी होगी...ऐसी कोशिश जो हर हाल में कामयाब हो।

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