स्वास्थ्य नीति, ऐसे कैसे चलेगी ?

राकेश दुबे@प्रतिदिन। केंद्र सरकार की स्वास्थ्य नीति में कहने को तो बड़ी-बड़ी बातें हैं लेकिन इससे देश का स्वास्थ्य ढांचा सुधरने की उम्मीद कम ही है। इस नीति के मुताबिक हर भारतवासी स्वास्थ्‍य लाभ का हकदार है, लेकिन शिक्षा के अधिकार की तरह स्वास्थ्य को लोगों का मौलिक अधिकार नहीं बनाया जा सकता। सरकार का इरादा स्वास्थ्य पर जीडीपी का 2.5 प्रतिशत खर्च करने का है। अभी यह खर्च जीडीपी का 1.04 प्रतिशत है। सरकार का लक्ष्य है कि देश के 80 प्रतिशत लोगों का इलाज सरकारी अस्पताल में पूरी तरह मुफ्त हो, जिसमें दवा और जांच भी शामिल है। इस स्वास्थ्य नीति में सभी मरीजों को बीमा का लाभ देने का भी प्रावधान है। उन्हें प्राइवेट अस्पताल में भी इलाज करवाने की छूट मिलेगी। स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत निजी अस्पतालों को ऐसे इलाज के लिए तय रकम दी जाएगी। जिला अस्पतल और इससे ऊपर के अस्पतालों को सरकारी नियंत्रण से अलग किया जाएगा और इसे पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप में शामिल किया जाएगा।

भारत जैसे देश में, जहां कुपोषण के कारण पांच साल से कम उम्र के करीब दस लाख बच्चों की हर साल मृत्यु हो जाती हो, हेल्थ सेक्टर में उठाया गया हर कदम अपर्याप्त ही लगता है। भारत की चुनौतियों को देखते हुए हेल्थ के लिए जीडीपी की 2.5 प्रतिशत राशि अब भी बहुत कम है। ब्रिक्स देशों में ब्राजील अपनी जीडीपी का 3.8 प्रतिशत, रूस 3.7 प्रतिशत और चीन 3.1 प्रतिशत सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं। फिर भी कहना होगा कि केंद्र सरकार ने एक कदम आगे की ओर जरूर बढ़ाया है, लेकिन यहां सिर्फ अच्छे इरादों से काम नहीं चलने वाला।

असल चुनौती स्वास्थ्य नीति को जमीन पर उतारने की है। यह तभी कारगर हो पाएगी जब राज्य सरकारें इसे गंभीरता से लें। स्वास्थ्य राज्य का विषय है और राज्य अपनी प्राथमिकता के आधार पर इसका बजट रखते हैं। जैसे, यूपी जैसा बड़ा राज्य सबसे कम खर्च स्वास्थ्य पर ही करता है। जबकि गोवा, जहां की आबादी उत्तर प्रदेश की आबादी के 1 प्रतिशत से भी कम है, अपने नागरिकों के स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति पांच गुना ज्यादा खर्च करता है। योजना आयोग के भंग होने के बाद राज्य सरकारों की भूमिका और बढ़ गई है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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