
शुरुआत में अपनी सेवा के लिए ग्राहकों से, यहां तक कि खुद प्रधानमंत्री मोदी से बैंकरों को तारीफ मिली थी। मगर बदलते वक्त के साथ कहानी तब बदलने लगी, जब कतारें कम नहीं हुईं, जांच एजेंसियों द्वारा भंडाफोड़ किए गए हवाला रैकेटों में कुछ बैंकरों की मिलीभगत की बात सामने आई और 30 दिसंबर, 2016 की समय-सीमा खत्म होने तक 500 व 1000 रुपये के सभी पुराने नोट यानी लगभग 15.4 लाख करोड़ रुपये बैंकों में वापस आते दिखे। बीते चार जनवरी को ब्लूमबर्ग ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की कि 30 दिसंबर तक 14.97 लाख करोड़ रुपये बैंकिंग सिस्टम में वापस आ गए हैं। यह खबर कुछ ऐसे लोगों के हवाले से दी गई, जिन्होंने अपना नाम जाहिर नहीं किया।
हालांकि सरकार को उम्मीद थी कि 2.5 लाख करोड़ से लेकर पांच लाख करोड़ रुपये तक की रकम काला धन होने की वजह से बैंकों में वापस नहीं आएगी। मेरा मानना है कि इस पूरे प्रकरण की तीन तरह से व्याख्या की जा सकती है- पहली व्याख्या, अर्थव्यवस्था में कोई काला धन था ही नहीं। दूसरी, सभी काला धन नकदी में नहीं था (हकीकत में यह धन नकदी में था भी बहुत कम)। और तीसरी, लोगों ने काले धन को सफेद करने के तिकड़म अपनाए और वे इसमें सफल भी हुए। इन तीनों में मुझे पहली व्याख्या असंभव जान पड़ती है, तो दूसरी में थोड़ी-बहुत सच्चाई दिखती है। मगर तीसरी सच के ज्यादा करीब लगती है (और इसीलिए नोटबंदी से पहले इस क्षेत्र में होमवर्क न करने की जिम्मेदारी किसी को लेने की जरूरत है।)
आठ नवंबर के बाद से लोगों ने काले धन को कैसे सफेद किया, उन तरीकों को लेकर कई बातें होती रही हैं। मानो हर कोई यह जानने को उतावला दिख रहा हो कि कोई क्या किसी ऐसे शख्स को जानता है, जो यह काम कर सके? एक तरीका अपने सगे-संबंधियों की मदद लेकर उनमें काले धन को बांटना रहा, तो दूसरे में ऐसे लोग खोजे गए, जो कुछ कमीशन लेकर यह काम करें और फिर उसे जायज आमदनी बताई जा सके। कुछ अन्य तरीकों में भ्रष्ट बैंकरों की मदद भी ली गई। यही बात जेहन में जम गई है। बैंकरों की मानें, तो इसी ने सबसे ज्यादा नुकसान भी पहुंचाया, क्योंकि यह आरोप उन पर लगाया जाता रहा है कि डूबे हुए कर्ज के यूं बढ़ने की वजह वही हैं।
भारत की बैंकिंग प्रणाली पर पिछले दो वर्षों में डूबे हुए कर्ज के कारण जबर्दस्त दबाव आया है। इस कारण बैंकर तेजी से जांच के दायरे में आ रहे हैं। मगर सभी डूबे कर्ज की वजह ये बैंकर नहीं हैं, बल्कि कुछ बाहरी कारण भी हैं, जिनमें राजनीतिक दबाव भी शामिल है। कुछ कर्ज इसलिए डूब गए, क्योंकि जिस प्रोजेक्ट पर वे लिए गए थे, जमीन या ईंधन न मिलने की वजह से उन पर संकट के बादल आ गए। कुछ की वजह कंपनियों का कुप्रबंधन रहा, जबकि कुछ मामलों में बैंकों ने महत्वाकांक्षी विकास का अविवेकी आकलन करके कर्ज दिया। बेशक सीबीआई ने ऐसे तमाम मामलों में दर्जन भर के करीब जांच शुरू की है, मगर इससे समस्या की व्यापकता का शायद ही पता चल सका है।
इस बार भी सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय ने कुछ ऐसे बैंकरों को गिरफ्तार किया है, जिन्होंने काला धन को सफेद बनाने में मदद पहुंचाई, मगर एक बार फिर इससे प्रणालीगत खामियों के सबूत नहीं मिल रहे हैं। तमाम आंकड़ों का यदि मोटा-मोटा विश्लेषण करें, तो बैंकरों ने जितनी रकम के साथ हेराफेरी की, वह बैंकों में जमा कुल रकम का एक फीसदी भी नहीं है। अगर कहानी कुछ और है, तो दोषी वह तथ्य भी है कि बैंकों में खरीद-फरोख्त ‘थोक’ से ‘खुदरा’ के स्तर पर आ गई है। मिंट ने 28 दिसंबर को प्रकाशित एक लेख आर बैंकर्स इंडियाज न्यू करप्ट? में इस ओर इशारा भी किया था। असल में, डूबे कर्जों की बात करें, तो इसमें भ्रष्टाचार का मौका बैंक के बड़े अधिकारियों के पास होता है। मगर पुराने नोट को बदलने के मामले में आमतौर पर निचले दरजे के अधिकारियों के पास यह मौका होता है। लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं निकला जाए कि बैंकरों ने इस मौके का लाभ उठाया है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए