
उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती द्वारा पाकरे के निर्माण और उनमें हाथी की मूर्तियां लगाने के खिलाफ पिछले विधानसभा चुनाव में काफी हंगामा हुआ था। उस समय आयोग ने इन मूर्तियों को ढंकवा दिया था। मामला न्यायालय में भी गया था। उसी समय न्यायालय ने चुनाव आयोग की राय मांगी थी। कहा जा सकता है कि चुनाव आयोग ने देर से ही सही, लेकिन सत्तासीन पार्टियों को मिलने वाले लाभ से वंचित किया है। चुनाव निष्पक्ष होने का अर्थ है कि सभी पार्टियों को समान अवसर मिलना चाहिए।
इसका दूसरा पक्ष भी है। सरकारें राजनीतिक दलों की होती हैं और वे जनता के हित में कोई योजना चलाते हैं, जिनमें वायदे ही तो होते हैं। यदि उनमें से किए गए वायदों का वे अपने चुनाव चिह्न के साथ पूरा करने का प्रचार करते हैं तो इसे गलत कैसे कहा जा सकता है? लोकतंत्र में सरकारें अपने काम के बूते ही तो जनता के बीच वोट मांगने जाती हैं। अपनी प्रचार सामग्री में उन कामों का वर्णन किया जाना स्वभाविक है। अपने भाषण में भी नेता उन कामों की बात करते हैं, जो उनकी सरकार ने किया है। जो पार्टी सत्ता में है, उसके प्रचार का यही आधार हो सकता है। जनता भी पूछती है आपने क्या किया? विपक्ष भी उससे प्रश्न पूछता है, इन सबका जवाब यही है कि वह पार्टी की प्रचार सामग्री में इनके विवरण दे। इसलिए इस दिशा-निर्देश को व्यावहारिक बनाने की जरूरत है अन्यथा इसके अतिवादी हो जाने का खतरा ज्यादा है। लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी है, काम करना बगैर भ्रष्टाचार के। काश इस पर राजनीतिक सहमति बने।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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