राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश में खाद्यान्न की मांग में निरंतर वृद्धि से पशु चारे के लिए खेती का रकबा सिकुड़ता जा रहा है। शहरों का विस्तार और सड़क जैसी पक्की संरचनाओं के निर्माण में आई तेजी से भी घास वाले मैदानों या गोचर भूमि अतिक्रमण व् अन्य कारणों से समाप्त हो रही है। भूजल के लगातार नीचे जाने से कुदरती रूप से उगने वाली घास अब लगभग समाप्त होती जा रही है। इसके अलावा नकदी फसलों की खेती की तरफ बढ़ते रुझान के चलते भी पशु चारे की किल्लत बढ़ती गई है। बाकी कसर कंबाइंड हार्वेस्टर मशीन से गेहूं आदि की कटाई ने पूरी कर दी है। कंबाइन हार्वेस्टर से गेहूं की फसल के महज ऊपरी हिस्से की कटाई होती है। बाकी हिस्सा खेत में पड़ा रह जाता है, जिसे बाद में जला दिया जाता है। इससे न सिर्फ खेतों में उगने वाली घास भी नष्ट हो जाती है, फसलों का डंठल बेकार जाने से पशु चारे का संकट पैदा होता है।
मोटे अनाजों, दलहनी और तिलहनी फसलों की खेती में आ रही कमी से भी पशुचारे का संकट गहराया है। इसके अलावा कृषि अपशिष्टों की गत्ता मिलों और मशरूम उद्योगों को ऊंचे दामों पर बिक्री की प्रवृत्ति ने भी पशुचारे का संकट बढ़ाने में आग में घी का काम किया है।
पशु चारे में हरी घास और हरे चारे की हिस्सेदारी लगातार घटती जा रही है। जिन राज्यों में चरागाह हैं वहां दुग्ध विकास की परियोजनाएं संचालित ही नहीं की जा रही हैं जैसे हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्य। यहां दुधारू पशुओं के बजाय अन्य उद्देश्यों के लिए पशुपालन होता है।संसद में प्रस्तुत कृषि संबंधी स्थायी समिति की रिपोर्ट में भी पशु चारे की कमी पर गंभीर चिंता जताई गई है। । देश में जितना ध्यान पशुओं के नस्ल सुधार पर दिया जाता है उसका दसवां हिस्सा भी पशुओं की पोषण क्षमता बढ़ाने पर नहीं दिया जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि नस्ल सुधार और प्रभावी पशुधन जैसे लक्ष्य तब तक हासिल नहीं होंगे जब तक कि मवेशियों के लिए पर्याप्त भोजन की व्यवस्था न की जाए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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