इस समझौते से चीन और पाक की नींद उड़ी

राकेश दुबे@प्रतिदिन। रक्षा मंत्री की अमेरिका यात्रा के दौरान हुए समझौते के परिणाम अच्छे होने का अनुमान लगाया जा रहा है। समझौते के मुताबिक, दोनों देश अपने रक्षा उपकरणों की मरम्मत या ईंधन भरने जैसे कामों में एक-दूसरे के ठिकानों का इस्तेमाल कर पाएंगे। भारत शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका विरोधी व सोवियत समर्थक खेमे में था, वहां से इस समझौते तक की राह लंबे वक्त के बाद तय हो पाई है। शीतयुद्ध के जमाने की कुछ प्रवृत्तियां अब भी भारत में मौजूद हैं, इसलिए अमेरिका के साथ रक्षा संबंधी सहयोग को लेकर कुछ आशंकाएं और विरोध अब तक लोगों के जेहन में है।

यह समझौता जब प्रस्तावित हुआ था और जब उस पर दस्तखत हुए हैं, इस बीच पूरे 12 वर्ष निकल गए हैं। इस समझौते का प्रस्ताव अमेरिका ने मनमोहन सिंह के कार्यकाल की शुरुआत में दिया था, लेकिन संप्रग के राज में इसे लेकर हिचक बनी रही। नरेंद्र मोदी की सरकार ने भी इस पर दस्तखत करने में दो वर्ष लगा दिए। अमेरिका किसी भी देश के साथ जब ऐसा समझौता करता है, तो उसका एक तयशुदा प्रारूप है, लेकिन भारत ने काफी चर्चा और बहस के बाद प्रारूप में कई बदलाव कराए। फिर भी देश में इसे लेकर काफी बहस और विरोध होने की पूरी आशंका है। भारतीय रक्षा मंत्री को इस समझौते पर काफी सफाई भी देनी पड़ी है।

उन्होंने यह साफ किया कि इस समझौते के तहत भारत में अमेरिकी ठिकाने नहीं बनाए जाएंगे। समझौते से यह होगा कि संयुक्त सैन्य अभ्यास के दौरान दोनों देश एक-दूसरे की सुविधाएं इस्तेमाल कर पाएंगे और इससे साथ-साथ काम करना आसान हो जाएगा। अमेरिका ने ऐसे चार समझौते प्रस्तावित किए थे, उनमें से दो पर तो आखिरकार सहमति हो गई है, लेकिन बचे हुए दो समझौतों पर निकट भविष्य में सहमति की संभावना नहीं दिखती। ये दो समझौते सूचना तंत्र के सहयोग से संबंधित हैं।

इन्हें लेकर सिर्फ राजनीतिक विपक्ष ही नहीं, सेना में भी विरोध है, इसलिए अगर इन पर दस्तखत हुए भी, तो लंबे विचार-विमर्श के बाद होंगे। पर्रिकर ने इन समझौतों के बारे में यही कहा है कि फिलहाल उनके होने की संभावना नहीं है। अमेरिका भारत से ऐसे समझौते करने के लिए इसलिए भी उत्सुक है, क्योंकि हिंद महासागर क्षेत्र में सबसे प्रभावशाली उपस्थिति भारत की ही है और भारत के साथ सहयोग से अमेरिका का प्रभाव काफी हद तक बढ़ जाएगा। हिंद महासागर क्षेत्र में अमेरिकी रणनीति चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षा को थामने की है। क्षेत्र के अन्य देश, जैसे जापान, वियतनाम और ऑस्ट्रेलिया भी चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकना चाहते हैं। भारत लोकतांत्रिक देश है। इसकी महत्वाकांक्षा विस्तारवादी नहीं है, जैसी चीन की है, इसलिए ये सभी देश भारत के साथ मिलकर साझा रणनीति बना रहे हैं।

इस समझौते से चीन व पाकिस्तान का चौकन्ना होना भी स्वाभाविक है। पिछले कुछ वक्त से भारत की रणनीति में ज्यादा सक्रियता व आक्रामकता देखने को मिली है। पाकिस्तान अमेरिका का लंबे समय से सहयोगी रहा है, लेकिन अफगानिस्तान की स्थितियों ने पाकिस्तान और अमेरिका के आपसी संबंधों में शक पैदा कर दिया है। वैसे भी, दक्षिण एशिया और हिंद महासागर में पाकिस्तान की भूमिका बहुत सीमित ही हो सकती है और वास्तव में वह अमेरिकी नहीं, बल्कि चीनी खेमे का सदस्य है। पहले इराक युद्ध के वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने अमेरिकी लड़ाकू विमानों को भारत में ईंधन भरने की सुविधा दी थी, तब से आज इस समझौते तक भारत-अमेरिका सामरिक सहयोग ने लंबी यात्रा तय कर ली है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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