ओलम्पिक गया, आत्ममुग्धता से बाहर आयें

राकेश दुबे@प्रतिदिन। रियो ओलंपिक में बैडमिंटन में रजत पदक और कुश्ती में कांस्य पदक जीतकर भले थोड़े वक्त के लिए देश आत्ममुग्ध हो, मगर हकीकत क्या है, यह सब जानते हैं। इस बार पहले की तुलना में 117 एथलीट ओलंपिक में शिरकत करने गए थे और पदक की उम्मीद भी दहाई में थी। इस बार खिलाड़ियों की विफलता ने लगता है जैसे नाकामी की नई इबारत ही लिख दी।

खेल महाकुंभ शुरू होने के 13 वें दिन कुश्ती में साक्षी मलिक ने बेहद कड़े और रोमांचक मुकाबले में कांसा अपने नाम किया तो 15वें दिन बैडमिंटन में पीवी सिंधु ने रजत पदक जीता। मात्र दो पदक के साथ भारतीय दल वापस तो आ गया। मगर देश की खेल व्यवस्था, सरकारी तंत्र और खिलाड़ियों को मिलने वाली हर सुविधा का जर्रा-जर्रा खोल कर रख दिया है। यह प्रदर्शन किसी दृष्टि से खुशी देने वाला नहीं है। इस प्रदर्शन पर तो सिर्फ-और-सिर्फ आत्मावलोकन ही किया जा सकता है कि हमसे चूक कहां हुई?

सवा अरब देशवासी को इस बार ज्यादा तकलीफ इस बात से हुई कि कई खिलाड़ी विश्व स्तर की प्रतियोगिता में अव्वल रहे हैं। हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि सभी खिलाड़ियों ने निराश ही किया. कुछ ने तो उम्मीद से लाख गुना बेहतर प्रदर्शन किया। और अपनी जीजिविषा से यह साबित कर दिया कि उन्हें अनदेखा न किया जाए। जब खिलाड़ी निराश करते हैं तो गुस्सा और क्षोभ के केंद्र में सरकार और उनके विभाग आते हैं,परंतु यह बात शत-प्रतिशत सही नहीं है. खेल मंत्रालय ने टारगेट ओलंपिक पोडियम (टॉप्स) स्कीम के तहत दो साल में खिलाड़ियों की ट्रेनिंग पर 180 करोड़ रुपये खर्च किए। इसके तहत करीब सौ खिलाड़ियों को मदद दी गई. वहीं, सुविधाएं देने में कोई कमी नहीं छोड़ी। विदेशी कोच भी नियुक्त किए, लंदन ओलंपिक में जहां 20 फीसद विदेशी कोच थे वहीं रियो में आंकड़ा 40 फीसद पहुंच गया। यहां तक कि व्यक्तिगत कोच, मसाजर और ट्रेनर भी बढ़ा दिए गए। तो गलती कहां है?

इस बात की पड़ताल बेहद जरूरी है। चुनौतियों का आकलन न कर पाना भी फिसड्डी रहने की एक अहम वजह है। वैसे, चीन का प्रदर्शन भी उम्मीद के अनुरूप नहीं रहा है। मगर, दूसरों की गलतियों पर खुश होने की बजाय हमें खुद पर भरोसा रखना होगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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