
यदि उत्तरप्रदेश में लोकसभा चुनाव परिणाम को असम के नतीजो और बीते दो सालों में आए राजनीतिक बदलाव के तथ्य के साथ परखा जाए, तो एक भी सांसद न भेज पाने वाली बसपा और पारिवारिक सीटों को बचाने भर में कामयाब रही सपा-कांग्रेस के बीच भाजपा की मौजूदगी को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
सवाल यह है कि क्या असम के समान उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में सत्ता और सियासत की दिशा और समीकरण बदलने के आसार हैं, जहां बीते पंद्रह सालों में बसपा और सपा की, क्रमिक अंतराल में, स्पष्ट बहुमत के साथ सरकारें बनी है?साल 2007 के विधानसभा चुनावों में मायावती की जीत, सपा सरकार में बिगड़ी कानून-व्यवस्था की चिंता का जनादेशी संबोधन था। मुख्यमंत्री मायावती के पांच साल के कार्यकाल को तुलनात्मक रूप से बेहतर कानून-व्यवस्था के लिए जाना गया। लेकिन, जैसा कि असम में हुआ, हिंसाग्रस्त राज्य में शांति बहाल करने में सफल रही गगोई सरकार के कामकाज को इस बार जनता ने विकास और नये अवसर उपलब्ध न करा पाने के मानक पर खारिज कर दिया, वैसे ही मायावती विकास की उम्मीद और आर्थिक विजन के अभाव में अखिलेश यादव के सामने कमजोर साबित हुईं।अखिलेश यादव अपने कार्यकाल के चार सालों में बतौर मुख्यमंत्री परिपक्व होते दिखे हैं, लेकिन राज्य सरकार की अनेक योजनाओं कोई विशेष उपलब्धि या बदलाव हासिल नहीं किया है। सत्ता बदलाव के बीते अनुभवों के आधार पर बसपा की वापसी के लिए कथित दलित-मुस्लिम गठजोड़ को प्रचारित किया जा रहा है, लेकिन क्या सियासत इतनी सपाट और उसकी संभावनाएं इतनी सीमित हैं? प्रदेश में जातीय राजनीति का गठजोड़ चूक गया है, यह कहना नासमझी तो है, लेकिन जातीय गणित न तो अब मंडल दौर में है, न ही स्थिर है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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