उपदेश अवस्थी @प्रसंगवश। बलराज मधोक नहीं रहे। वो 96 वर्ष के थे। अपनी पूरी आयु जिए, लेकिन भारत की राजनीति के लिए जो कुछ वो कर सकते थे, जितने वो सक्षम थे। वो सबकुछ नहीं कर सके। बलराज मधोक संघ या संघ से जुड़े राजनैतिक संगठनों की अंग्रिम पंक्ति के वो नेता थे जो संघ में व्याप्त 'सामंतशाही' का शिकार हुए। उन्होंने सारा जीवन संघ के माध्यम से देश की सेवा में देने का प्रण लिया परंतु उस माध्यम ने ही उन्हे मध्य में छोड़ दिया। जब तक वो लाभदायक थे, लाभ लिया और जब वो व्यवस्था में संशोधन करने लगे तो उन्हें निकाल दिया गया।
चुनौतियों में जीते
श्री मधोक का जन्म कश्मीर के अस्कर्दू में 25 फरवरी 1920 में हुआ था। उन्होंने लोकसभा में दक्षिण दिल्ली का दो बार प्रतिनिधित्व किया। मधोक लाहौर में अध्ययन के दौरान ही 1938 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल हो गए थे। 1942 में संघ का पूर्णकालिक प्रचारक बनने के बाद उन्हें कश्मीर में संघ की इकाई की स्थापना करने के लिए कश्मीर भेजा गया।
ABVP की स्थापना
1948 में वह दिल्ली चले आए और यहां उन्होंने संघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की स्थापना की। उसी साल मधोक जनसंघ में शामिल हो गए, जहां वह डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी से मिले। 1966-67 में वह इसके अध्यक्ष बने और 1967 के आम चुनाव में उन्होंने पार्टी का नेतृत्व किया।
लोकतांत्रिक और व्यवहारिक व्यवस्था का ड्राफ्ट
फरवरी, 1973 में कानपुर में जनसंघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सामने एक नोट पेश किया। उस नोट में मधोक ने आर्थिक नीति, बैंकों के राष्ट्रीयकरण पर जनसंघ की विचारधारा के उलट बातें कही थीं। इसके अलावा मधोक ने कहा कि जनसंघ पर आरएसएस का असर बढ़ता जा रहा है। मधोक ने संगठन मंत्रियों को हटाकर जनसंघ की कार्यप्रणाली को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने की मांग भी उठाई।
तानाशाही के शिकार
लालकृष्ण आडवाणी उस समय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। वे मधोक की इन बातों से इतने नाराज हो गए कि आडवाणी ने मधोक को पार्टी का अनुशासन तोड़ने और पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होने की वजह से उन्हें तीन साल के लिये पार्टी से बाहर कर दिया गया। कमावेश यही स्थिति लालकृष्ण आडवाणी के जीवन में भी बनीं। एक वक्त ऐसा भी आया जब उनकी ही भारतीय जनता पार्टी में उन्हें बस निष्कासित घोषित नहीं किया गया, लेकिन मोदी युग में उन्हें अपमानजनक हाशिए पर जरूर डाल दिया गया। आडवाणी यदि उन दिनों जनसंघ में 'सामंतवाद' का समर्थन ना करते तो शायद उन्हें ये कड़वे घूंट ना पीने पड़ते।
गुनाह-ए-अजीम
मधोक जिस आरएसएस के प्रमुख स्तंभ थे, जिन्होंने जान जोखिम में डालकर संघ का काम किया, जिन्होंने जनसंघ का विस्तर किया, जिन्होंने एबीवीपी को जन्म दिया। जिन्होंने सारा जीवन ही समर्पित कर दिया। उनके ड्राफ्ट पर विचार तक नहीं किया गया। कुछ इस तरह की कार्रवाई की गई जैसे मधोक अंतिम पंक्ति के सामान्य कार्यकर्ता हों। उनसे पूछा तक नहीं गया कि आखिर उन्होंने यह ड्राफ्ट बनाया क्यों। बस सजा ए मौत सुना दी गई। यह प्रकरण एक सबक बन गया। संघ में यदि सवाल किए, व्यवस्थाओं को बदलने की कोशिश की तो आप कितने भी सामर्थ्यवान, उपयोगी और लोकप्रिय क्यों ना हो। मिटा दिए जाओगे। इसके बाद संघ चाटुकारों का सबसे बड़ा संगठन हो गया। स्वतंत्र विचार वाले बुद्धिजीवि धीरे धीरे वापस होते चले गए। यह प्रक्रिया सतत जारी है।
अंतिम प्रयास
इस घटना से बलराज मधोक इतने आहत हुए थे कि फिर कभी नहीं लौटे। मधोक जनसंघ के जनता पार्टी में विलय के खिलाफ थे। 1979 में उन्होंने 'भारतीय जनसंघ' को जनता पार्टी से अलग कर लिया। उन्होंने अपनी पार्टी को बढ़ाने की हर संभव कोशिश की, लेकिन सफलता हासिल नहीं हुई। असली बुद्धिजीवियों का टोटा तब भी था और अब भी है।
होहल्ला वाले क्या जानें
इन दिनों सोशल मीडिया पर ऐसे बहुत सारे लोगों की भीड़ उपलब्ध है जो 'लोकतंत्र' या 'देशभक्ति' या 'हिंदू' शब्द का अर्थ ही नहीं जानतें परंतु शोर बहुत मचाते हैं। वो मधोक को कभी पहचान भी नहीं पाएंगे। मोदी ने ट्विट कर दिया है इसलिए फालोअर्स भी रिट्विट कर रहे हैं परंतु मेरे लिए यह शोक का विषय नहीं है कि मधोक नहीं रहे, शोक का विषय तो यह है कि मधोक को वो सबकुछ करने का अवसर नहीं मिल पाया जो वो कर सकते थे। उनकी क्षमताओं का दोहन ही नहीं हो पाया। दशकों के घने अध्ययन के बाद बना मधोक के भारत का नक्शा ना जाने कहां गुम हो गया।