
पेड़ की हरी पत्तियों में मौजूद क्लोरोफिल यानी हरा पदार्थ, वातावरण में मौजूद जल-कणों या आद्र्रता हाईड्रोजन व आक्सीजन में विभाजित कर देता है। हाईड्रोजन वातावरण में मौजूद जहरीली गैस कार्बन डायआक्साईड के साथ मिल कर पत्तियों के लिए शर्करायुक्त भोजन उपजाता है जबकि ऑक्सीजन तो प्राण वायु है ही। जब पत्तियों का क्लोरोफिल चुक जाता है तो उसका हरापन समाप्त हो जाता है व वह पीली या भूरी पड़ जाती हैं और यह पत्ती पेड़ के लिए भोजन बनाने के लायक नहीं रह जाती है, लेकिन उसमें नाईट्रोजन, प्रोटिन, विटामिन, स्टार्च व शर्करा आदि का खजाना होता है। इन्हें सुलगा दिया जाता हैं।
पत्तों के तेज जलाने की तुलना में उनके धीरे-धीरे सुलगने पर ज्यादा प्रदूषण फैलता है। एक अनुमान है कि शरद के तीन महीनों के दौरान दिल्ली एनसीआर इलाके में जलने वाले पत्तों से पचास हजार वाहनों से निकलने वाले जहरीले धुएं के बराबर जहर फैलता है। यानी चाहे जितना सम-विषम वाहन फामरूला लागू कर लो, पतझड़ के दो महीने में सालभर की जहर हवा में घुल जाता है। पत्ते जलने से निकलने वाली सल्फर डाई आक्साइड, कार्बन मोनो डाय आक्साइड आदि गैसे दमघोटूं होती हैं। शेष बची राख भी वातावरण में कार्बन की मात्रा तो बढ़ती ही है, जमीन की उर्वरा क्षमता भी प्रभावित होती है। यही पत्ते खाद में बदले जाते हैं तो जमीन को नया जीवन देते हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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