महिलाओ के साथ ऐसा व्यवहार उचित नहीं

राकेश दुबे@प्रतिदिन। दिल्ली भारत की राजधानी में दिनदहाड़े 40 प्रतिशत महिलाओं को किसी न किसी प्रकार का यौन उत्पीडन झेलना पडा है, यह हरकतें दिनदहाड़े और सार्वजनिक स्थान पर हुई हैं। अकादमिक पत्रिका इंटरनेशनल क्रिमिनल जस्टिस रिव्यू के अध्धयन का यह नतीजा है। ऐसे सर्वेक्षण आधारित अध्ययन पूरी सही न भी हों, तब भी इनसे स्थिति की गंभीरता का एहसास तो होता ही है। साथ ही इससे यह भी पता चलता है कि निर्भया कांड के बाद भी राजधानी दिल्ली तक में महिलाओं के लिए सुरक्षित और सम्मानजनक जगह नहीं बन पाई है।कारण  अब तक महिलाओं के प्रति स्वाभाविक सम्मानजनक बदलाव हमारे सार्वजनिक शहरी व्यवहार का हिस्सा नहीं बन पाया है, न ही ज्यादातर मर्द यह समझ पाते हैं कि उनकी कौन-सी बात या हरकत किसी महिला के लिए पीड़ा या अपमानजनक हो सकती है। तेजी से बढ़ते हुए हमारे शहरों में पुरानी परंपरागत संस्कृति के ढांचे टूट रहे हैं और आधुनिक शहरी शिष्टाचार सिर्फ महिलाओं के मामले में नहीं, किसी भी मामले में आम तौर पर नदारद है। इस वजह से शहरी सार्वजनिक इलाके महिलाओं के नजरिये से आक्रामक और असुरक्षित बन गए हैं।

इस अध्ययन में यौन प्रताड़ना की समस्या को व्यापक संदर्भ में देखा गया है। अध्ययन के मुताबिक, यौन प्रताड़ना की समस्या विश्व-व्यापी है, लेकिन उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में और दक्षिण एशियाई देशों में यह सबसे ज्यादा है। इसकी बड़ी वजह यह है कि इन देशों में महिलाएं बड़ी तादाद में कामकाजी हुई हैं और इससे घर से बाहर उनकी मौजूदगी भी बढ़ी है। ऐसे में, परंपरागत पुरुष प्रधान समाजों में एक सांस्कृतिक बदलाव हो रहा है, जिसके लिए बहुत से पुरुष तैयार नहीं हैं और यह महिलाओं के प्रति उनके व्यवहार में आक्रामकता के रूप में प्रकट होता है।शहरों में बड़े पैमाने पर लोग आकर बस रहे हैं, जिनसे शहरों की संरचना लगातार अस्थिर हो रही है। एक मायने में शहर जड़ों से उखड़े हुए लोगों की शरण स्थली बन रहे हैं, जो शहरी संस्कृति में अपनी जगह नहीं बना पा रहे हैं। दिल्ली जैसे शहरों में अराजक और भीड़ भरा सार्वजनिक परिवहन तंत्र महिलाओं की समस्याओं को बढ़ा देता है। एक मायने में भारतीय शहर अनेक संस्कृतियों के टकराव की जगह बन गए हैं, जहां घोर सामंती संस्कृति से लेकर अत्याधुनिक पश्चिमी संस्कृति तक, सब एक साथ मौजूद हैं।संस्कृतियों के बीच टकराव अक्सर आक्रामक और कभी-कभी हिंसक रूप धारण कर लेता है। कानून-व्यवस्था के तंत्र में संवेदनशीलता और प्रभाव की कमी की वजह से आक्रामक लोगों में कानून का डर भी नहीं रहता। परंपरागत पुरुष प्रधान संस्कृति में बढ़े-पले ज्यादातर पुरुष यह मानते हैं कि महिलाओं की जगह सिर्फ घर के अंदर है और वे घर से बाहर महिलाओं की उपस्थिति के प्रति सहज नहीं हो पाते। यह मानसिकता सिर्फ कानूनी उपायों से नहीं बदल सकती।

भारत में आधुनिकीकरण के साथ कई नई सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याएं खड़ी हो गई हैं या कई पुरानी समस्याएं ज्यादा विकृत रूप में सामने आई हैं। लेकिन जैसे आजादी के आंदोलन के दौरान या आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में कई सामाजिक-सांस्कृतिक सुधारों के आंदोलन चल रहे थे, वैसे बाद में नहीं चले। इसकी वजह से कई आर्थिक-राजनीतिक बदलावों के सांस्कृतिक नतीजे बहुत सकारात्मक नहीं रहे हैं। शहरों में महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा का सवाल भी इसी तरह के सांस्कृतिक शून्य की ओर इशारा करता है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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