
दूसरी ओर, पुलिस के अधिकारी एसआरडी कल्लूरी हैं जो पत्रकारों को जेल में डालकर या बस्तर न जाने देकर ही सारा नक्सल विरोध चला रहे हैं |पिछले दिनों उन्होंने एक राष्ट्रीय अंग्रेजी अखबार की संवाददाता को बस्तर जाने से रोका और इतना परेशान किया कि उसने रायपुर से तबादला ले लिया| एक स्थानीय पत्रकार प्रभात सिन्हा कल्लूरी विरोधी एक कथित ट्वीट के आरोप में जेल में डाले गए|नक्सलियों से संबंधित काफी सारा गंभीर अध्ययन करने वाली बेला भाटिया ने जब पुलिस और सुरक्षा बलों के साथ ही नक्सलियों द्वारा आदिवासी महिलाओं से किए गए दुष्कृत्य के चालीस से ज्यादा मामलों की छानबीन शुरू की तो उनको भी इन तक पहुंचने में कम परेशानी नहीं हुई|
इस नृशंस हिंसा की निंदा से ही बात शुरू करनी चाहिए. पर, जो सवाल इस बार खास तौर से उठे हैं, उनकी सीमाओं और संभावनाओं को भी देखना होगा.सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि जब सरकारी दावों के अनुसार अधिकांश शीर्ष माओवादी नेता मारे या गिरफ्तार किए जा चुके थे और आंध्र ही नहीं पश्चिम बंगाल और ओडिसा से उनके पांव उखड़ रहे थे, ममता राज ने जंगलमहल को नक्सलियों से खाली कराके विकास की गंगा बहा दी| खुद झारखंड के नक्सलियों में फूट दिखने लगी थी, तब यह और इतनी बड़ी वारदात को नक्सलियों ने कैसे अंजाम दिया | सम्भव है कि नए बने कैम्प के जवान और अधिकारी असली खतरे का अंदाजा लगाने में चूके हों. फिर भी माओवादियों के लिए यह नया जीवन फूंकनेवाली ‘सफलता’ है| सरकार को अपन रणनीति बदलना होगी |
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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