राकेश दुबे@प्रतिदिन। हमारा देश अपने गणतन्त्र होने का ६७ वा उद्घोष कर रहा है | एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र के रूप में | बदलाव और लचीलापन लोकतन्त्र की शक्ति होती है | इस बात से भले ही कुछ एक वर्ग असहमत सा दिखे, पर भारत ने लोकतंत्र के इन मूलभूत सिद्धांतो को नहीं छोड़ा है | भारतीय गणतंत्र अपने साढ़े छह दशक के सफर के बाद भी कई बुनियादी सवालों से जूझ रहा है। हमें सिर्फ यह ख्याल रखना है कि इन सवालों से जूझने की प्रक्रिया गणतंत्र के मूल विचारों और मूल्यों को मजबूत करे, न कि उसे कमजोर करे, क्योंकि पिछले लगभग एकाध साल से जो चुनौतियां हमारे समाज में उभर रही हैं, वे कई बुनियादी मूल्यों को ही कसौटी पर कस रही हैं। जैसे शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त यथास्थितिवाद और समाज में वैचारिक मतभेदों को सहन कर पाने की क्षमता का अभाव।
भारत को आने वाले दौर में अगर सचमुच आर्थिक महाशक्ति बनना है, तो उसे अपनी शिक्षा व्यवस्था को सुधारना होगा, क्योंकि आने वाले वक्त में अर्थव्यवस्था ज्यादा से ज्यादा ज्ञान आधारित होने वाली है और वही समाज तरक्की कर पाएगा, जिसके पास ज्ञान की पूंजी होगी। इस तरह, अगर वैचारिक मतभेदों के प्रति इतनी संकीर्णता और दुराग्रह बने रहे, तो यह भारतीय समाज के विकास के लिए तो बुरा होगा ही, ज्ञान के विस्तार के लिए भी बुरा होगा, क्योंकि ज्ञान को फलने-फूलने के लिए खुला और उदार माहौल चाहिए, न कि ऐसा माहौल, जिसमें किसी भी व्यक्ति को अपने विचार व्यक्त करने में 'राष्ट्रविरोधी' का तमगा मिलने का डर हो।एक तर्क यह दिया जा रहा है कि आधुनिक भारतीय बौद्धिक जगत पर वामपंथी विचारों का वर्चस्व है।
हमारी अर्थव्यवस्था ने जरूर वामपंथी, समाजवादी धारा को ढाई दशक पहले निर्णायक रूप से विदा कर दिया, लेकिन बौद्धिक जगत में अब भी बदलाव नहीं हुआ है। अब जाकर इसमें बदलाव आ रहा है, इसलिए ज्यादा उथल-पुथल दिखाई दे रही है। अगर यह टकराव बौद्धिक स्तर पर ही हो, तो उसका नतीजा रचनात्मक होगा, लेकिन अगर सड़कों पर हिंसक टकराव से फैसले होंगे, तो वे घातक होंगे। आजादी, समानता और भाईचारा लोकतंत्र के आधार हैं, और उन्हें मजबूत करने की हर पहल देश को आगे ले जाएगी।
- श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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