राकेश दुबे@प्रतिदिन। तमिलनाडू में जल्लीकट्टू को लेकर, एक अजीब सा खेल प्रेम दिख रहा है, जिसे आन्दोलन की और ले जाने की कोशिश हो रही है | आदिम युग में जानवर आदमी के लिए क्रीड़ा के सबब रहे हों, मनोरंजन के माध्यम रहे हों पर धीरे-धीरे मनुष्य ने विकास के सोपान तय किए तब जानवर उसकी सुविधा के जरिया बन गये| कभी खेती के लिए, कभी भोजन के लिए, कभी यातायात के लिए और कभी सुरक्षा-संरक्षा तथा प्रेम के प्रकटीकरण के लिए| लेकिन आज जब हम सभ्य होने के दावे पर इतरा रहे हैं, तब भी जानवरों से खेलने का खेल परम्परा के नाम पर जारी रखना चाहते हैं तो साफ होता है कि हमारे विकास के दावे झूठे हैं, बेमानी हैं|
कहने को देश में बहुत-सी ऐसी परम्पराएं थीं और हैं जिनका होना समाज के लिए, विकसित समाज के लिए, सभ्य समाज के लिए कलंक कहा जा सकता है| समय-समय पर इन कलंकों को धोने के लिए हमारे समाज-सुधारक और सरकारें आगे आई| अगर ऐसा नहीं होता तो हम आज भी बाल-विवाह, सती-प्रथा, विधवा-उत्पीड़न सरीखी तमाम कुप्रथाओं से मुक्त नहीं हो पाते| इन सबको दरकिनार करते हुए सांडों के खेल जल्लीकट्टू को तमिलनाडु के पोंगल पर्व पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का उपहार मानकर जिस तरह वहां की मुख्यमंत्री जयललिता ने आभार प्रकट किया था और दक्षिण तमिलनाडु में पटाखे छुड़ाकर मिठाई बांटी गई; उनसे यही पता चला कि हम फिर उसी मार्ग पर लौट रहे हैं, जहां जाने की मनाही सिर्फ पशु-प्रेमी ही नहीं कर रहे थे, बल्कि सर्वोच्च अदालत ने वर्ष 2014 में अपनी सहमति भी जता दी थी|
यही नहीं, केंद्र सरकार की जिस अधिसूचना से जल्लीकट्टू और बैलगाड़ी दौड़ को अनुमति मिली, उसी अधिसूचना का अंश यह बताता है कि भालू, बंदर, बाघ, चीते आदि को प्रदर्शन पशु (पर्फामिर्ंग एनिमल) के तौर पर प्रशिक्षित या प्रदर्शित नहीं किया जाएगा| हालांकि सांडों के खेल और बैलगाड़ी-दौड़ को अनुमति देते हुए कई तरह के प्रतिबंध आयद किए गये हैं| मसलन, पंद्रह मीटर की अर्धव्यास की दूरी सांडों के खेल के लिए और २०० मीटर की दूरी महाराष्ट्र, कर्नाटक, पंजाब, हरियाणा, केरल व गुजरात की पारम्परिक बैलगाड़ी दौड़ की सीमा तय की गयी है.
पर एक ऐसे देश में जहां कानून तोड़ने के लिए बनते हों, जहां कानून तोड़ना प्रतिष्ठा का सबब हो, जहां कानून का पालन करना ‘पप्पुओं’ का पर्याय बन गया हो, वहां इन सीमाओं का अतिक्रमण नहीं होगा; यह मानना दिवास्वप्न कहा जाना चाहिए. मानव ने विकास के साथ बढ़ती उपभोक्तावादी संस्कृति के तहत जानवरों का जिस तरह उपयोग किया, उसी का नतीजा है कि मात्र ३५ वर्षों में कोरुक प्राणियों की आबादी दुनिया भर में घटकर आधी रह गयी है और हर साल बाघ भी मारे जा रहे है.
- श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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