राकेश दुबे@प्रतिदिन। दिल्ली में जिस भी मित्र से बात होती है, सब एक ही बात कहते हैं, “प्रधानमंत्री कमजोर दिख रहे हैं|” यह वाक्य उनकी निजी सेहत के लिए नहीं बल्कि उनकी राजनीतिक सेहत के लिए कही जा रही है | वैसे भी भारतीय संसद में बहुमत वाले प्रधानमंत्रियों को जब भी चुनौतियाँ मिली हैं, दल के भीतर से मिली हैं | मोदी जी के साथ भी ऐसा ही हो रहा है |
पंडित नेहरु के कार्यकाल को छोड़ दिया जाये तो नरेंद्र मोदी की सरकार उस पंक्ति में खडी दिखाई देती है, जिसमें लालबहादुर शास्त्री [1964 से 1967], इंदिरा गाँधी [1971 से 1977], मोरार जी देसाई [1977 से 1989], पुन: इंदिरा गाँधी [1980 से 1984] और राजीव गाँधी [1984 से 1989] की बहुमत वाली सरकारें रही हैं | इन सब में एक समानता है पहला कार्यकाल समझने और समझाने में बीता और अपने ही भीतर की चुनौतियां सर दर्द बनी | बहुमत का सिर्फ यही अर्थ नहीं होता कि प्रधानमंत्री को पहले कार्यकाल में कोई चुनौती नहीं मिल सकती | मोदी के पूर्ववर्ती अपने दूसरे कार्यकाल में ही आरामदायक स्थिति में पहुंचे हैं | मोदी सरकार के लिए अगला चुनाव चुनौती पूर्ण होगा और यह चुनौती उनके दल के भीतर ही तैयार हो रही है |
मोदी सरकार का अब तक का प्रदर्शन चाहे वह कूटनीतिक, आर्थिक अथवा राजनीतिक रहा हो, बहुत उल्लखेनीय नहीं कहा जा सकता | सारी भाजपा दिल्ली, बिहार और देश में यत्र तत्र हो रहे उप चुनाव और नगरीय निकाय के नतीजो से घायल है | जिस “मोदी मेजिक” को गुजरात से दिल्ली विजय तक आधार बनाया गया, वैसा प्रदर्शन भाजपा के अन्य मुख्यमंत्री अपने दाग लगे कुर्तों के साथ करने का दम भरते नज़र आ रहे हैं | प्रधानमंत्री का राज्यों के इन गंभीर विषयों पर मौन उन्हें उसे उस पंक्ति में न ले जाये जहाँ उनके पूर्व मौनमोहन सिंह खड़े हैं |