राकेश दुबे@प्रतिदिन। वैसे अंतरराष्ट्रीय राजनय में अक्सर इतनी जल्दबाजी में फैसले किए नहीं जाते। “नरेंद्र मोदी की पाकिस्तान की यात्रा” हो सकता है कि इसके बारे में पहले से तय किया गया हो, लेकिन यह भी सोचा गया हो कि इस यात्रा को गुप्त रखा जाए। इस तरह की नाटकीय योजना का भी अलग असर होता है। इससे लगता है कि दोस्ती बढ़ाने के लिए किसी नेता ने सामान्य राजनयिक तौर-तरीकों से हटकर विशेष कदम उठाया है। कभी-कभी इस तरह के कदम का बहुत सकारात्मक असर होता है, तो कभी-कभी इसका उलटा असर भी होता है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शर्म अल शेख में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी से अचानक मुलाकात की थी। उसकी इतनी विपरीत प्रतिक्रिया हुई कि उससे भारत-पाकिस्तान रिश्ते सुधारने की प्रक्रिया में गंभीर रुकावट आ गई। प्रतिक्रिया अनुकूल हो या प्रतिकूल, ऐसे नाटकीय और चौंकाने वाले कदम का असर प्रभावशाली होता है।
जो भारत और पाकिस्तान के बीच अच्छे रिश्ते चाहते हैं और जिनका यथार्थवादी नजरिया है, वे इस पहल का स्वागत करेंगे। यह वास्तविकता है कि तमाम अवरोधों के बावजूद पाकिस्तान से बातचीत जारी रखने और रिश्तों में तरक्की की उम्मीद करने का कोई विकल्प नहीं है। दोनों ही देशों में ऐसे लोग हैं, जो बातचीत को बेकार मानते हैं और ऐसे भी लोग हैं, जो बातचीत को विफल बनाना चाहते हैं, क्योंकि दोनों के रिश्तों में सुधार से उनके हित प्रभावित होते हैं। भारत में लोकतांत्रिक सरकार काम करती है, इसलिए बाहरी तत्व एक हद तक वैचारिक रूप से ही सरकारी नीति को प्रभावित करने की कोशिश कर सकते हैं। पाकिस्तान की विदेश नीति, खासकर भारत संबंधी नीति में कई सारे सांविधानिक और असांविधानिक तत्वों की दिलचस्पी है और वे इतने स्वायत्त हैं कि अपने स्तर पर किसी सरकारी पहल में रुकावट डाल सकते हैं।
पाकिस्तानी सत्ता तंत्र में सेना अपने आप में स्वायत्त है, बल्कि विदेश नीति में उसकी भूमिका असैन्य सरकार से ज्यादा प्रभावशाली है। हम पाकिस्तान से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि प्रधानमंत्री कोई कदम अख्तियार करे, तो सेना उसी राह पर चलेगी। इसके अलावा कई असांविधानिक तत्व हैं, खासकर उग्रवादी समूह, जिनके निहित स्वार्थ हैं। पाकिस्तान की नागरिक सरकार से बातचीत करते वक्त ये सारे तथ्य समझते हुए लगातार बातचीत करते रहना जरूरी है, क्योंकि किसी भी तरह का संवाद बंद करना कोई हल नहीं है।