सतीश जोशी। बीता दिन इंदौर में ऐसा गुजरा जैसे इस शहर का कोई मालिक नहीं है। प्रशासन को शायद सांप सूंघ गया था और सरकार कहीं किसी अंधी गुफा में सोई पड़ी थी। शहर के जनप्रतिनिधि नाम को बहुत हैं, पर सारे के सारे इंदौर में उमड़ी भीड़ के सामने बेबस नजर आ रहे थे। ऐसा लग रहा था कि मानो प्रशासन का कोई अधिकारी परिस्थितियों को समझने-बुझने को तैयार नहीं था।
एक अराजक वातावरण ने पूरे शहर को सन्नीपात के दौर में पहुंचा दिया था। शहर ऐसा बीमार हो गया था कि जैसे उसके हाथ-पांव सुन्न पड़े हों, जो जहां खड़ा था स्तब्ध था, वाहन इधर से उधर गली-कूचों पर जगह ढूंढ़ते फिर रहे थे और मौन जनता किसी अज्ञात भय की सलवटें चेहरे पर लिए बचाव की मुद्रा में किसी संरक्षक को तलाश रही थीं। बिना किसी सूचना के एक समाज विशेष के लोग किसी बात को लेकर आक्रोश व्यक्त करें यह तो किसी के गले नहीं उतरता, पुलिस और प्रशासन को खबर नहीं।
पुलिस के आला अधिकारी शहर में शांति कमेटी की मीटिंग ले रहे थे और शहर एक ऐसी बारूद पर खड़ा था जिस पर एक चिंगारी भी अशांति का बवंडर खड़ा कर सकती थी। पुलिस को सूचना नहीं थी और उसका खुफिया तंत्र पूरी तरह निस्तेज और सूचनाविहीन था। पता नहीं इस शहर को क्या हो गया, हर कोई सवाल दाग रहा था, किसी के पास उत्तर नहीं था, भयभीत लोग किसी आशंका से घिरे घर-दफ्तर की राह पकड़ रहे थे। जो जहां था वहां से बचने के रास्ते तलाश रहा था और प्रशासन है कि उसे कोई सूझ नहीं थी।
एक जिम्मेदार समाज की भी जवाबदारी है कि वह यदि आक्रोश व्यक्त कर रहा है और ज्ञापन देने के लिए प्रशासन के आला अधिकारी तक पहुंच रहा है तो उसे अनुशासित होकर शहर की व्यवस्था को ध्वस्त किए बिना अपनी बात कहनी चाहिए। किसी को व्यवस्था ध्वस्थ करने का कोई अधिकार नहीं है। भला हो कि कोई बड़ी घटना नहीं घटी, मगर प्रशासन के लिए यह बड़ा सबक दे गई है।
- लेखक इंदौर से प्रकाशित 6 PM के सलाहकार संपादक हैं।