
संविधान निर्माण के समय अनुच्छेद-44 में कहा गया था कि “भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए राज्य एक समान नागरिक संहिता प्राप्त करने का प्रयास करेगा।“ लेकिन हकीकत सबके सामने है। इस संहिता का स्वरूप क्या हो, यह भी परिभाषित नहीं किया जा सका है। देश के शासकों ने अंग्रेजों द्वारा नागरिक कानूनों में किए- निजी एवं सार्वजनिक- बंटवारे को ही आगे बढ़ाया, जिसके तहत सार्वजनिक दायरे के लिए सख्त नियम बनाए, पर निजी दायरे के जैसे औरतों को प्रभावित करने वाले कानूनों को पर्सनल लॉ के अंतर्गत समुदाय के नियंत्रण में छोड़ दिया। दिलचस्प बात यह है कि पितृसत्ता को धक्का लगना उनके हित में भी नहीं था, इसलिए उन्होंने इसे छेड़ना मुनासिब नहीं समझा। बहुत ही सीधा और खुला प्रश्न है कि संपत्ति के स्वामित्व में, उत्तराधिकार में, मजदूरी और नौकरी के हर्जाने में व्यक्तिगत क्या है? ये तो सार्वजनिक हित के प्रश्न हैं और इन पर इसी दृष्टि से विचार किया जाना चाहिए।
यह एक विचित्र सत्य है कि आजादी के बाद वास्तविक जनतंत्र के पक्षधरों द्वारा उठाई गई समान नागरिक संहिता की मांग बाद के दिनों में इस देश में हिंदुत्ववादी ताकतों के एजेंडे में समाहित हो गई ,फिर यह मसला सांप्रदायिकता के साथ ऐसा नत्थी हुआ कि वह हिंदुत्ववादियों का हथकंडा बन गया। दूसरी ओर, अल्पसंख्यक समुदायों के निहित स्वार्थों वाले नेता समान नागरिक संहिता के मसले को इस तरह पेश करते रहे हैं मानो इससे अल्पसंख्यकों के वजूद पर ही संकट आने वाला हो। इस तरह, दोनों तरफ से समान नागरिक संहिता के सवाल को न तो कभी सही नजरिए से देखा गया और न ही सही परिप्रेक्ष्य में रखा गया।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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