राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश का कोई एसा डा शहर नहीं है जहाँ कोचिंग क्लासेस नहीं चलती हो और ऐसा कोई महिना नहीं बीतता जिसमे छात्रों द्वरा की गई आत्महत्या की खबर नहीं आती हो। कोटा उत्तर भारत का सबसे बड़ा कोचिंग क्षेत्र है। अक्तूबर महीने में ही कोटा में मेडिकल और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा के लिए कोचिंग हासिल कर रहे पांच बच्चों ने अत्यधिक दबाव और तनाव के कारण आत्महत्या कर ली। कोटा के 40 कोचिंग संस्थानों ने मिलकर छात्रों के लिए एक हेल्पलाइन शुरू की है, जो छात्रों की काउंसिलिंग करेगी। लेकिन इससे यहां चल रहे संस्थानों के अपने विज्ञान पर शायद ही कोई फर्क पड़ेगा। न ही अपनी सारी अपेक्षाएं और अरमान अपनी संतानों पर लादने की माता-पिता की प्रवृत्ति ही प्रभावित होगी।
यह दावा है कि जेईई के पिछले परीक्षा परिणाम के टॉप रैंक में 100 में 30 कोटा के कोचिंग संस्थानों से ही निकले हैं। लगभग दो हजार करोड़ के सालाना टर्नओवर वाले कोटा के कोचिंग संस्थान हर साल 130 करोड़ रुपया टैक्स के रूप में सरकार को चुकाते हैं। यहां के 120 कोचिंग संस्थानों में लगभग डेढ लाख छात्र शिक्षा लेते हैं। इस कामयाबी का स्याह पक्ष यह है कि कारोबार बढ़ने के साथ ही आत्महत्या की खबरें भी अधिक आने लगी हैं। कोचिंग व्यवसाय में लगे लोगों के पास ऐसी आत्महत्याओं का बेहद सरलीकृत विश्लेषण मौजूद है। वे बताते हैं कि अब जब 15000 सीटों के लिए कई-कई लाख छात्र परीक्षा दे रहे हैं, और एक-एक सीट के लिए तगड़ी प्रतियोगिता हो, तो बच्चों का तनावग्रस्त होना स्वाभाविक है।तनाव और दबाव तो लेने ही होंगे, तभी कामयाबी मिलेगी। इस तनाव में मां-बाप की उम्मीदों का दबाव भी जुड़ जाता है। और फिर थोड़ी-सी नाकामी भी छात्रों को गहरी निराशा में ले जाती है। ऐसा नहीं है कि युवावस्था में आत्महत्या का अनुपात कोटा में ही अधिक है। 'लांसेट' मेडिकल जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार युवा भारतीयों में आत्महत्या- मृत्यु का दूसरा सबसे आम कारण है। यह पहला अवसर नहीं है, जब हम इस कड़वी हकीकत से रूबरू हो रहे हैं।
सात साल पहले भी एक रिपोर्ट में तीन सालों में 16000 स्कूली व कॉलेज छात्र-छात्राओं की आत्महत्या की बात स्वीकार की गई थी। तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री ने आश्वस्त किया था कि सरकार स्थिति की गंभीरता से वाकिफ है और राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम की नयी रूपरेखा में इसके लिए प्रावधान होंगे। अगर ऐसा कुछ हुआ भी, तो उसका परिणाम अब तक देखने को नहीं मिला है। फिर इस समस्या का हल स्वास्थ्य मंत्रालय को नहीं, पूरे समाज और हमारे शिक्षा शास्त्रियों को निकालना है। हमारी शिक्षा व्यवस्था जिस ढर्रे पर चल रही है, उसे बदले बिना ऐसी समस्याओं को खत्म करना शायद मुमकिन नहीं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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