राकेश दुबे@प्रतिदिन। अमेरिका के कहने पर पाकिस्तान ने लश्कर-ए-तैयबा जैसे कुछ गुटों के खिलाफ कार्रवाई करने का बमुश्किल मन बनाया है जिन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ ने आतंकवादी घोषित किया है, लेकिन इस बात की बहुत कम संभावना है कि जमीन पर हालात जरा भी बदलेंगे। अमेरिका पाकिस्तान से आतंकवादी गुटों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए जाने कब से कह रहा है। सन 2007 के बाद अमेरिका ने यह शर्त लगा दी है कि पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद से लड़ने की कोशिशों की समीक्षा के बाद ही उसको आर्थिक सहायता दी जाएगी।
होता यह रहा है कि पाकिस्तान का इस मोर्चे पर रिपोर्ट कार्ड हमेशा से खराब रहा है और अमेरिकी रक्षा मंत्री शर्तों को दरकिनार करने के अपने अधिकार का उपयोग करके पाकिस्तान को सहायता देते रहे हैं। इसलिए यह उम्मीद बेकार है कि इस बार पाकिस्तान अपने वायदे को निभाएगा। इसके अलावा पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की अपने देश की रक्षा और विदेश नीति में लगभग कोई दखल नहीं है, यह पाकिस्तान सेना का अधिकार क्षेत्र है। पाकिस्तानी सेना का एकमात्र निशाना भारत है और दूसरा यह है कि अफगानिस्तान में उसकी कठपुतली सरकार होनी चाहिए। दोनों ही उद्देश्य अमेरिकी नीति के खिलाफ जाते हैं।
हाल ही में जब पाकिस्तान ने आतंकवादी गुटों पर सख्ती करना शुरू किया, तो शायद अमेरिकियों में यह उम्मीद बनी होगी कि आतंकवाद से खुद पीडि़त होने के कारण पाकिस्तान सचमुच आतंकवाद से लड़ेगा। लेकिन अब यह साफ हो गया है कि पाकिस्तानी सेना ने अफगानिस्तान में सक्रिय तालिबान और हक्कानी समूह को समर्थन देना जारी रखा है और पाकिस्तान में सक्रिय भारत विरोधी लश्कर-ए-तैयबा और हिज्बुल मुजाहिदीन को भी उसका संरक्षण मिला हुआ है।
अमेरिकी नीति निर्माताओं का मानना यह है कि पाकिस्तानी सेना और आतंकवादियों का गठजोड़ अमेरिकी हितों और नीतियों के खिलाफ काम कर रहा है, लेकिन पाकिस्तानी सेना को मदद करना इसलिए जरूरी है कि उसके तंत्र के ढहने से हालात ज्यादा खतरनाक हो जाएंगे। ऐसे में, अमेरिकी सख्ती भी सिर्फ औपचारिकता निभाने की होती है और पाकिस्तान का आतंकवाद से लड़ने का दावा भी। अगर अमेरिका सचमुच सख्ती बरतने का साहस दिखाए, तो स्थिति कुछ हद तक जरूरी बदल सकती है, लेकिन बराक ओबामा का कार्यकाल खत्म होने को है और अब वह अमेरिकी नीति बदलने की स्थिति में नहीं हैं और अगले राष्ट्रपति के दौर में भी अमेरिका के लिए अपनी बुनियादी पाकिस्तान नीति बदल पाना काफी कठिन फैसला होगा|
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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