“ वारसा” के बहाने यह असंवैधानिक कृत्य

राकेश दुबे@प्रतिदिन। एक तरफ देश संविधान पर लम्बी लम्बी बहस कर रहा है, दूसरी और राज्य की सरकारें मानवीय मूल्यों के विपरीत अशोभनीय व्यवसायों में आरक्षण कर रही हैं। भारत में सफाई के काम में दलित जातियों का (खासकर वाल्मीकि समुदाय के लोगों का) ही बहुलांश लगा हुआ है, महाराष्ट्र पुनर्बहाल ‘वारसा’ कानून सफाई के काम को उन्हीं के लिए ‘आरक्षित करेगा’। पिता स्वच्छता कामगार, मां सफाई कर्मचारी और फिर आने वाली पीढ़ियों को भी उसी काम में लगा देने की ‘गारंटी’ यह कानून करेगा। 

यह कहाँ का न्याय है कि स्वच्छता के काम में लगे विशिष्ट समुदाय के लोग ही उस काम में लगे रहें। एक ऐसे वक्त में जबकि तमाम मेहनतकश तबकों में- जो सदियों से सामाजिक सोपानक्रम में निचले पायदान पर स्थित रहे हैं- एक नई जागृति आ रही है, उस वक्त ऐसी कोई भी पहल एक तरह से उसी जातिप्रथा को बनाए रखने का जरिया बन सकती है। महाराष्ट्र सरकार जो भी तर्क दे, मगर जैसा कि स्पष्ट है यह कदम एक तरह से सदियों पुरानी जाति व्यवस्था को जारी रखने पर आधिकारिक मुहर लगाना है।

 एक तरफ देश की सरकारें जो खतरनाक हालात में काम करने वाले इन कामगारों को सुरक्षा-उपकरण प्रदान करने में विफल रहती है और दूसरी तरफ वह चाहती है कि इसी ‘गंदे काम में’ पीढ़ी-दर-पीढ़ी वही लोग लगे रहें। लेकिन सफाई के काम को खास समुदायों के लिए ही आरक्षित रखने में महाराष्ट्र सरकार कोई अपवाद नहीं है। 

कुछ समय पहले जम्मू-कश्मीर में स्वच्छकार कहलाने वाली जाति में जनमे और इस राज्य के निवासी के लिए सफाई वालों की सरकारी नौकरी में सौ फीसद आरक्षण की गारंटी की बात सुनाई दी थी। सफाई वालों की भर्ती के लिए वर्ष 2008 की अधिसूचना में साफ लिखा गया था कि इसके लिए सौ फीसद सीधी भर्ती संबंधित समुदाय से होगी। वर्ष 2012 में उत्तर प्रदेश में सत्ता संभाले अखिलेश यादव ने अपने जनाधार के विस्तार के मकसद से वाल्मीकियों को रिझाते हुए इसी तर्ज पर चंद घोषणाएं की थीं। और इस कवायद से कुछ साल पहले मायावती के नेतृत्व वाली बसपा सरकार ने समान किस्म का निर्णय लिया था। पूर्ववर्ती मायावती सरकार द्वारा जारी विज्ञापन में अनुसूचित जातियों विशेषकर ‘वाल्मीकि समुदाय’ के उत्थान की खातिर लिए गए ‘ऐतिहासिक निर्णय’ बात कही गई थी। उसी किस्म का एलान उन दिनों हरियाणा में भूपिंदर सिंह हुड््डा की अगुआई वाली कांग्रेस सरकार ने किया था। दलित उत्थान को लेकर जो सरकारी विज्ञापन प्रकाशित किया गया था, उसमें इसी बात को रेखांकित किया गया था कि ‘दलितों के लिए एक सुनहरा अवसर कि ग्यारह हजार सफाई कर्मचारी अनुसूचित जातियों से ही भरती किए जाएंगे।’ ये सब क्या है ?

अनुसूचित जातियों और जनजातियों के कल्याण से संबंधित केंद्रीय विद्यालय संगठन और नवोदय विद्यालय की समिति ने अपनी जो सिफारिशें आठ साल पहले संसद के समक्ष पेश की थीं (दिसंबर 1, 2007 ) उसमें भी यही बात प्रतिध्वनित हो रही थी। इसमें कहा गया था कि केंद्रीय विद्यालयों और उनके कार्यालयों के लिए जरूरी सफाई कर्मचारी अनुसूचित जातियों और जनजातियों से ही भरती किए जाएंगे। यह विडंबना ही है कि उस वक्त किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि सफाई का काम उसी समुदाय के लिए आरक्षित करना, आखिर किस मायने में ‘ऐतिहासिक निर्णय’ कहा जा सकता है। 

श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com 

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