राकेश दुबे@प्रतिदिन। अर्थ शास्त्र में कुछ भी समझना हो तो उसमें ग्राफ जरुरी है। मौद्रिक नीति के पिछले ग्राफों पर जरा बारीकी से नजर डालें, तो वर्तमान फैसले प्रश्न चिन्ह में आ जाते हैं। नवंबर 2013 में मुद्रास्फीति चरम पर थी। उसके बाद यह प्रभावी ढंग से गिरी। नवंबर 2013 और मई 2014 के दरम्यान (यूपीए का कार्यकाल) उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई 12.2 फीसद से गिर कर 8.3 फीसद पर आ गई।
मई 2014 और अगस्त 2015 के दरम्यान (राजग का कार्यकाल) यह आंकड़ा 8.3 फीसद से 3.7 फीसद पर आ गया। इस प्रक्रिया में जनवरी 2015 तक मुद्रास्फीति को आठ फीसद पर लाने का रिजर्व बैंक का लक्ष्य आसानी से पा लिया गया, और अब लगता है कि जनवरी 2016 तक छह फीसद का लक्ष्य भी हासिल हो जाएगा। लेकिन इस दौरान जो रेपो रेट संबंधी निर्णय हुए उन्हें असंगत ही कहना होगा।
जनवरी 2014 तक ब्याज दरों में 25 आधार अंकों की छोटी-छोटी बढ़ोतरी हुई। फिर, 2014 के साल में रेपो रेट को आठ फीसद पर अपरिवर्तित रखा गया, जब मुद्रास्फीति में लगातार गिरावट का रुख रहा। हालांकि डॉ राजन ने 2015 में रेपो रेट में तीन बार कटौती की, जब मुद्रास्फीति की दर कमोबेश स्थिर रही। रिजर्व बैंक के फैसले विरोधाभासी थे। उसका खयाल था कि जून 2015 के बाद महंगाई बढ़ेगी। बाद में जो सामने आया उससे जाहिर है कि महंगाई के बारे में रिजर्व बैंक का अनुमान गलत था।
कोई यह तर्क दे सकता है कि अगर मुद्रास्फीति संबंधी अनुमान और सटीक रहे होते, तो कटौतियां और पहले तथा थोड़ी अधिक हो सकती थीं। उससे पूंजी प्रवाह बेहतर हुआ होता, मांग बढ़ी होती और निवेशकों का हौसला बढ़ा होता। मौद्रिक नीति का निर्धारण एक जटिल कवायद है। इसमें सीमित (और अक्सर कच्चे) आंकड़ों पर आधारित मुश्किल फैसले लेने होते हैं। इसमें एक ही शख्स पर बहुत अधिक दारोमदार होता है, भले वह असाधारण योग्यता वाला हो।
लिहाजा, मौद्रिक नीति निर्धारण के लिए एक समिति होनी चाहिए। जिसमें सरकार और रिजर्व बैंक का समान प्रतिनिधित्व हो और रिजर्व बैंक के गवर्नर को निर्णायक वोट का अधिकार हो। इस पर सहमति बन जाने का डॉ राजन संकेत दे चुके हैं, पर सरकार ने अभी तक समिति की बाबत कोई घोषणा नहीं की है। इस राज में वैसे भी निर्णय-प्रक्रिया रहस्य में लिपटी एक पहेली की तरह रही है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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