जवाबदेह हैं जनता के प्रति

डॉ राहुल रंजन। लोकतंत्र अर्थात पांच वर्ष में एक बार वोट देकर जनप्रतिनिधि चुनने का अधिकार। चुने गए जनप्रतिनिधियों से पूछने का कोई विकल्प नहीं कि वह जनहित के लिए क्या कर रहे हैं। जनप्रतिनिधियों को देश के नौकरशाहों के सीने पर बैठकर मनमानी करने की पूरी छूट। सरकारी सुविधाओं का मनमाना दोहन।

लग्जरी जीवनशैली, सफेदझक कपड़े पर्याय हैं जननेताओं की पहचान के। कहने को देश का हर जनप्रतिनिधि गरीब और किसान परिवार से राजनीति में आया है। राजनीति में वह सिर्फ इसलिए आए कि उनसे देश की आम जनता का दर्द, तकलीफें बर्दाश्त नहीं हुर्इं। कहने में ये बातें कितनी अच्छी लगती हैं कि हमारे देश का नेता कितना चिंतित है जनता के लिए। वह अपना जीवन समर्पित करने को अग्रसर है उसकी हर सांस देश को समर्पित है। हम भ्रम में हैं कि राजनीति करने वाले लोग स्वयं को कष्ट देकर लोगों की सेवा कर रहे हैं। वर्तमान में राजनीति एक ऐसे उद्योग के रूप में विकसित हो चुकी हेै जहां सिर्फ लाभ का ख्याल रखा जाता है।

दलगत राजनीति और नेताओं के आपसी संवाद, आरोप- प्रत्यारोप, हंगामा, बहस, धरना, प्रदर्शन इत्यादि सिर्फ दिखावे के लिए हैं। राजनीतिक दलों के सिद्धांतों में अंतर जरूर है पर अपना वजूद बचाए रखने की चिंता सर्वोपरि है। सरकारी नौकरी करने वाले कर्मचारी की काम को लेकर जवाबदेही तय है, गलतियों की सजा उसे मिलती है। हर व्यक्ति नियम कायदों के कड़े अनुशासन से बंधा हुआ है। लेकिन राजनेता किसी अनुशासन से बंधे नहीं हैं, उनकी गलतियों को छुपाने के हजार मौके हैं। एक दूसरे पर पर्दा डालते हुए वह जननायक बने हुए हैं।

चुनाव के समय आम नागरिकों से घर घर के दरवाजे पर हाथ जोड़कर विजयी बनाने की मिन्नत की जाती है, वादे तो ऐसे किए जाते हैं जैसे चुनाव नतीजे आते ही कायाकल्प हो जायेगा। जीता हुआ प्रतिनिधि उन गली मोहल्लों में दुबारा नहीं आता जहां उसने वादे किए थे। संसद और विधानसभाओं की बैठकों के दिन तय हैं और यह भी कि कितने दिनों की बैठकें होनी है। सांसद और विधायक को इन बैठकों में उपस्थित रहने का कड़ा नियम है। जनता को यह पूडने का अधिकार होना चाहिए के उनके वादों और आश्वासनों को पूरा करने की समयसीमा क्या होगी।

विधानसभाओं और संसद में उनके द्वारा लगाए गए प्रश्नों की जानकारी सार्वजनिक होने के साथ ही उनके निजी प्रयासों से विकास के कार्यों को बताया जाना चाहिए। आमतौर पर सांसद या विधायक अपने खाते में उन कार्यों को जोड़ लेते हैं जो राष्ट्रीय या प्रादेशिक सरकार की योजनाओं में शामिल हैं। पांच सालों में जनप्रतिनिधियों का संवाद कभी अपने निर्वाचन क्षेत्र से नहीं रहता। निर्वाचित होने के बाद वह ऐसे लोगों से घिरे रहते हैं जो उन्हें लाभ हानि का गणित सिखाते रहते हैं। आम लोग अर्थात मतदाता की जरूरतों और तकलीफों की जानकारी लेने में दिलचस्पी दिखाई नहीं देती।

शिकायतों के आवेदनों का कोई रिकार्ड नहीं होता। समय के साथ लोकतंत्र भी अपडेट होने की मांग करता है, जनप्रतिनिधियों पर नकेल कसने के लिए शक्तिशाली तंत्र विकसित करने की जरूरत है। इनकी जवाबदेही तय होनी चाहिए। पांच साल में सरकार को बदल देना या वर्तमान विधायक, सांसद को बदल देना स्थाई व्यवस्था नहीं। इस विषय पर देश को सोचना होगा।

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