हजारों शांता कुमार, लाखों दर्द

प्रदीप सिंह। समय के साथ पार्टियों में आंतरिक जनतंत्र बढ़ने की बजाय घटता जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और लोकसभा सदस्य शांता कुमार के पत्र को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

शांता कुमार को अपने पार्टी अध्यक्ष को पत्र लिखकर अपनी वेदना का इज़हार करना पड़ा। यह इस बात का संकेत है कि सब कुछ ठीक नहीं है। उन्हें शायद इस बात का एहसास था कि उनकी बात पार्टी के अंदर नहीं सुनी जाएगी। या इसे यों भी कह सकते हैं कि उन्हें अपनी बात कहने का अवसर ही नहीं मिलेगा।

लेकिन शांता कुमार अकेले नहीं हैं। पार्टी के अंदर ही नहीं सहयोगी दलों में भी इस स्थिति को लेकर नाराज़गी है। चाहे वो शिवसेना हो या राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा, सबकी शिकायत एक ही है कि हमसे कोई बात नहीं करता। इसलिए शांता कुमार की चिट्ठी हो या इन नेताओं का बयान, यह इस बात की मुनादी के लिए हैं कि हम भी हैं।

भाजपा के बहुत से दूसरे सांसद भी इस समस्या का सामना कर रहे हैं। पूरे एक साल बाद पहली बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के घटक दलों की बैठक हुई यही बात पूरी कहानी बयां करती है। यह बैठक शायद इस समय भी न होती अगर सरकार कटघरे में न खड़ी होती।

मनमोहन सिंह की सरकार की सबसे बड़ी कमजोरी भी संवादहीनता थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री का अपने मंत्रिमंडल के साथियों से संवाद नहीं था। पार्टी नेताओं और घटक दलों से भी संवाद दुर्घटनावश ही होता था।

विपक्ष से तो ख़ैर संवाद न करना सरकार की राजनीतिक रणनीति का हिस्सा ही था।  यूपीए या मनमोहन राज की एक बड़ी समस्या यह थी कि सत्ता के दो केंद्र थे। मनमोहन सिंह के पास उतनी ही शक्ति थी जितनी सोनिया गांधी ने उन्हें दी थी। यह शक्ति संतुलन भी समय समय पर बदलता रहता था। कांग्रेस पार्टी को उस समय लगता था कि वह मुख्य विपक्षी दल भाजपा से संवाद या कामकाजी रिश्ता बनाए बिना संसद और सरकार चला सकती है।

संवाद की कमी क्यों?
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार में सत्ता का एक ही केंद्र है। पार्टी का मामला हो या सरकार का सब कुछ प्रधानमंत्री तक सीमित है। सवाल है कि फिर संवाद की यह कमी क्यों?
इसके दो प्रमुख कारण नजर आते हैं।

एक सामान्य कारण है वह यह कि अहंकार सत्ता का स्वभाव है। सत्ता में आने पर वह धीरे धीरे आ ही जाता है। इसे इसकी खूबी कहें या ख़ामी कि जिस पर सवार होता है उसे इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नजर नहीं आता।

दूसरा कारण भाजपा का अपना है। बल्कि कहें कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का है। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उनके तेरह साल के कार्यकाल में वे और जिन भी कारणों के लिए जाने जाते हों पर संवाद के लिए तो नहीं ही जाने जाते।

सरकार में बैठे लोगों को लग रहा है कि सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है। जब कोई कमी नज़र ही नहीं आ रही तो उसे सुधारने का सवाल कहां उठता है। जो कांग्रेस ने दस साल तक भाजपा के साथ किया वही अब भाजपा उसके साथ कर रही है। मुख्य विपक्षी दल से संवाद ही मत करो।

हाशिए के लोग
सत्ता का एक और स्वभाव होता है। वह हाशिए पर पड़े लोगों को बड़ी हिक़ारत की नजर से देखती है। उसे लगता है कि इनसे बात करेंगे तो ये कुछ मांगेंगे। फिर यह भी लगता है कि इन्हें कुछ नहीं मिला इसलिए अपनी कुंठा का इज़हार कर रहे हैं। इसलिए उनकी सही बातों पर भी कोई ग़ौर नहीं करता।

संवाद में हमेशा कुछ देने के लिए तैयार रहना पड़ता है। जिसे आप कुछ देना ही नहीं चाहते उससे संवाद का जोखिम क्यों लें। इसलिए भाजपा और सरकार के शीर्ष नेतृत्व में अगर संवाद की कमी नज़र आ रही है तो उसकी वजह यह है कि उन्हें संवाद की ज़रूरत ही नहीं महसूस हो रही।

लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।

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